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________________ प्रो. सागरमल जैन 33 किया। फिर उन जिन प्रतिमाओं के सन्मुख शुभ्र, सलौने, रजतमय अक्षत तन्दुलों (चावलों ) से आठ-आठ मंगलों का आलेखन किया, यक्ष, स्वास्तिक यावत् दर्पण । तदन्तर उन जिन प्रतिमाओं के सम्मुख श्रेष्ठ काले अगर, कुन्दरु, तुरुष्क, और धूप की महकती सुगन्ध से व्याप्त और धूपबत्ती के समान सुरभिगन्ध को फैलाने वाले स्वर्ण एवं मणिरत्नों से रचित चित्र-विचित्र रचनाओं से युक्त वैडूर्यमय धूपदान को लेकर धूपक्षेप किया तथा विशुद्ध अपूर्व अर्थ सम्पन्न अपुनरुक्त महिमाशाली एक सौ आठ छन्दों में स्तुति की। स्तुति करके सात आठ पग पीछे हटा और फिर पीछे हटकर बांया घुटना ऊंचा किया और दायां घुटना जमीन पर टिकाकर तीन बार मस्तक को भूमि तल पर नमाया । नमाकर कुछ ऊंचा उठा तथा मस्तक ऊचाँ करके दोनों हाथ जोडकर आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके प्रभु की स्तुति कीं । इससे यह फलित होता है कि मुनिजन जो सचित्त द्रव्य का स्पर्श भी नहीं करते थे वे केवल वंदन या गुण-स्तवन ही करते थे किन्तु गृहस्थ पूजन सामग्री में सचित्त द्रव्यों का उपयोग करते थे। यद्यपि उस सम्बन्ध में अनेक सतर्कताएं बरती जाती हैं जिनका उल्लेख 7-8 वीं शती के जैन आचार्यों ने किया है। जैनों की पूजा विधि की जब हम वैष्णव विधि से तुलना करते हैं। तब हम पाते हैं कि दोनों में काफी समानता थी । मात्र यही नहीं जैनों ने अपनी पूजा विधि को वैष्णव परम्परा से गृहीत किया था । उनके आह्वान, विसर्जन आदि के मन्त्र न केवल हिन्दू परम्परा की नकल हैं, अपितु उनकी दार्शनिक मान्यताओं के विरोध में इसकी स्वतन्त्रचर्चा हमने अन्य लेख में की है ( श्रमण १६६०) वीतराग परमात्मा की जिसने त्याग, वैराग्य व तप का उपदेश दिया उसकी पूजा, पुष्प, फल, नैवेद्य, धूप, दीप आदि से की जाय यह स्पष्ट रूप से अन्य परम्परा का प्रभाव है। चूंकि वैष्णव परम्परा में यह विधि प्रचलित थी जैनों ने उन्हीं से गृहीत कर लिया और वे जिन पूजा के अंग मान लिये गए । वैष्णव परम्परा में पंचोपचार पूजा व षोडषोपचार पूजा के उल्लेख मिलते हैं। जैनों में उसके स्थान पर अष्ट प्रकारी पूजा एवं सतरह भेदी पूजा के उल्लेख हैं। दोनों में नाम क्रम आदि देखने पर यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा में पूजा विधि का विकास वैष्णव परम्परा से प्रभावित है। सामान्यतया भक्ति के क्षेत्र में विग्रह - पूजा की प्राथमिकता रही है और जैन परम्परा में भी चाहे किंचित परवर्ती क्यों न हों, किन्तु जिन मूर्तियों की पूजा के रूप में इसका प्रचलन हुआ। जैन पूजा पद्धति वैष्णव भक्ति परम्परा से न केवल प्रभावित रही, अपितु उसका अनुकरण मात्र है तथा जैन दर्शन की मान्यताओं के विरुद्ध है इस तथ्य की पं. फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री ने भी ज्ञान - पीठ पूजाञ्जली में विस्तार से चर्चा की है। मैने भी अपने लेख जैन धर्म के धार्मिक अनुष्ठान एवं कला तत्त्व में विस्तार से चर्चा की है। यहां इसका उल्लेख मात्र यह बताना है कि जैन परम्परा में भक्ति मार्ग का जो विकास है, वह हिन्दू परम्परा से प्रभावित होकर ही हुआ है। जहां तक दास, सख्य, एवं आत्म-निवेदन रूप भक्तियों के उल्लेख का प्रश्न है, अनीश्वरवादी जैन परम्परा में स्वामी - सेवक भाव से प्रभु की उपासना स्वीकृत नहीं रही है, क्योंकि उसमें भक्ति का लक्ष्य उस परमात्म दशा की प्राप्ति है जिसमें स्वामी सेवक का भाव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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