SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रो. सागरमल जैन द्वारा की गई तीर्थंकर की स्तुति के नाम से जाने वाले 'नमोत्थुणं नामक स्तोत्र (ई.पू. उरी शती) में भी अरहंत एवं तीर्थंकर के गुणों का चित्रण होते हुए भी उनसे कहीं कोई उपलब्धि की आकांक्षा प्रदर्शित नहीं की गई है। जहाँ तक मुझे स्मरण है, जैन परम्परा में सर्व प्रथम परमात्मा या प्रभु से कोई याचना की गयी तो वह चर्तुविंशति स्तवन (ई. सन् १ली शती) में है। इस स्तवन में सर्वप्रथम प्रभु से आरोग्य, बोधि और समाधि की याचना की गयी है। इसमें भी बोधि एवं समाधि तो आध्यात्मिक प्रत्यय है, किन्त आरोग्य को चाहे आध्यात्मिक साधना में आवश्यक माना जाय फिर भी वह एक लौकिक प्रत्यय ही है। प्रभु से आरोग्य की कामना करना यह सूचित करता है कि जैन परम्परा की भक्ति की अवधारणा में अपनी सहवर्ती हिन्दू परम्परा का प्रभाव आया है, क्योंकि जैन दार्शनिक मान्यताके अनुसार तो प्रभु किसी को आरोग्य भी प्रदान नहीं करता है। अरहंत के रूप में वह हमें मोक्ष-मार्ग या मुक्ति-पथ का मात्र बोध कराता है, उसे भी चल कर पाना तो हमें ही होता है। अतः इस चतुर्विशति स्तवन में जो आरोग्य की कामना है वह निश्चित रूप से जैन परम्परा पर अन्य परम्परा के प्रभाव का सूचक है। भविष्य में तो इस प्रकार अन्य प्रयत्न भी हुए। जैन परम्परा में उवसग्गहर स्तोत्र भी पर्याप्त रूप से प्रसिद्ध है। इसे सामान्यतया भद्रबाहू द्वितीय की कृति माना जाता है। इसमें प्रभु से भक्त को उपसर्ग से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना की गई है। जिन विपत्तियों की चर्चा है उनमें ज्वर, सर्पदंश आदि भी सम्मिलित है। यह स्तोत्र इस बात का प्रमाण है कि जैन परम्परा में भक्ति का सकाम स्वरूप भी अन्ततोगत्वा विकसित हो ही गया। यद्यपि जैन आचार्यों ने यहाँ जिन की स्तुति के साथ पार्श्व-यक्ष की स्तुति को भी जोड़ दिया है। वस्तुतः जब आचार्यों ने देखा होगा कि उपासकों को जैन धर्म में तभी स्थित रखा जा सकता है, जब उन्हें उनके भौतिक मंगल का आश्वासन दिया जा सके। चूँकि तीर्थंकर द्वारा किसी भी स्थिति में भक्तों के भौतिक मंगल की कोई सम्भावना नहीं थी, इसलिए तीर्थंकर के शासन-संरक्षक देवों के रूप में शासन देवता ( यक्ष-यक्षी) की कल्पना आयी और इस रूप में हिन्दू परम्परा के ही अनेक देवियों को न केवल समाहित किया गया, अपितु यह भी माना गया कि उनकी उपासना या भक्ति करने पर वे प्रसन्न होकर भौतिक दुःखों को दूर करते हैं। यक्ष-यक्षिणियों के जैन धर्म में प्रवेश के साथ ही उसमें हिन्दू धर्म की कर्म-काण्ड परक तांत्रिक उपासना पद्धति कुछ संशोधनों एवं परिवर्तनों के साथ समाहित कर ली गई। जैन स्तोत्र साहित्य में संस्कृत में जो सुन्दर स्तुतियाँ लिखी गई उनमें सिद्धसेन दिवाकर की द्वात्रिंशिकाएँ तथा समन्तभद्र के देवागम आदि स्तोत्र प्रसिद्ध हैं। संस्कृत में रचित ये स्तुतियां न केवल जिनस्तुति हैं, अपितु जिन स्तुति के ब्याज से प्रचलित दार्शनिक मान्यताओं की सुन्दर समीक्षा भी हैं। इन स्तुतियों में जैनधर्म का दार्शनिक स्वरूप अधिक उभरकर सामने आया है। इसलिए इन स्तुतियों को भक्तिपरक कम और दर्शनपरक अधिक माना जा सकता है। आठवीं-नवीं शती के पश्चात् जिन भक्तिपरक स्तोत्रों की रचना जैन परम्परा में हुई, उनमें भक्तामर स्तोत्र, कल्याणमंदिर स्तोत्र आदि सुपसिद्ध हैं। यद्यपि ये स्तोत्र जैन परम्परा में सकाम भक्ति की अवधारणा की विकास के बाद ही रचित हैं। इनमें पद-पद पर लौकिक कल्याण की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy