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________________ 24 जैन धर्म में भक्ति की अवधारणा िगया है। ज्ञातव्य है कि भक्ति या वात्सल्य दोनों का अर्थ श्रद्धायुक्त सेवा भाव ही है। आवश्यकनियुक्ति में सर्व प्रथम भक्ति के फल की चर्चा हुई। उसमें कहा गया है कि -- भत्तीइ जिणवराणं खिज्जंती पुव्वसंचियाकम्मा आयरिअ नमुक्कारेण विज्जा मंता य सिज्झांति भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं आरूग्ग बोहिलाभं समाहिमरणं च पावंति। - आवश्यक नियुक्ति ११८०-११११ । अर्थात् जिन की भक्ति से पूर्व संचित कर्म क्षीण होते हैं और आचार्य के नमस्कार से विद्या और मंत्र सिद्ध होते हैं। पुनः जिनेन्द्र की भक्ति से राग-द्वेष समाप्त होकर आरोग्य, बोधि और समाधि लाभ होता है। भारतीय परम्परा में नवधा भक्ति का उल्लेख मिलता है -- श्रवणं कीर्तनं विष्णो स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।। श्रीमद्भागवत ( 7/5/23) 1. श्रवण, 2. कीर्तन, 3. स्मरण, 4. पादसेवन, 5. अर्चन, 6. वंदन, 7. दास्य, 8. सख्य और 9. आत्मनिवेदन। भक्ति के इन नव तत्वों में कौन किस रूप में जैनपरम्परा में मान्य रहा है, इसका संक्षिप्त विवरण अपेक्षित है। इनमें से श्रवण शास्त्र-श्रवण या जिनवाणी-श्रवण के रूप में जैन परम्परा में सदैव ही मान्य रहा है। उसमें कहा गया है कि व्यक्ति को कल्याण मार्ग और पाप मार्ग का बोध श्रवण से ही होता है, दोनों को सुनकर ही जाना जाता है (दशवैकालिक ४/३४) । जहाँ तक कीर्तन एवं स्मरण का प्रश्न है इन दोनों का अन्तर्भाव जैन परम्परा के स्तवन में होता है। इसे षडावश्यको अर्थात् श्रमण एवं श्रावक के कर्तव्यों में दूसरा स्थान प्राप्त है। पादसेवन और वंदन को भी जैन परम्परा के तृतीय आवश्यक कर्तव्य के रूप में वंदन में अन्तर्निहित माना जा सकता है। अर्चन को जैन परम्परा में जिन-पूजा के रूप में स्वीकृत किया गया है। जैन परम्परा में मुनि के लिये भाव-पूजा और गृहस्थ के लिये द्रव्य-पूजा का विधान है। जिस प्रकार वैष्णव परम्परा में पंचोपचार पूजा और षोडशोपचार पूजा का विधान है उसी प्रकार जैन परम्परा में अष्ट-प्रकारी पूजा और सतरह-भेदी पूजा का विधान है। यद्यपि दास, सख्य एवं आत्मनिवेदन रूप भक्ति की विधाओं का स्पष्ट प्रतिपादन तो प्राचीन जैन आगमों में नहीं मिलता है किन्तु जिनाज्ञा के परिपालन, आत्मालोचन तथा वात्सल्य के रूप में इनके मूल तत्त्व जैन परम्परा में उपलब्ध हैं। भक्ति के इन अंगों की विस्तृत चर्चा अग्रिम पंक्तियों में की गई है। जैनधर्म में श्रद्धा जैन परम्परा में श्रद्धा के लिए सामान्यतया सम्यक्-दर्शन शब्द प्रचलित है। इस का मूल अर्थ तो देखना या अनुभूति ही है, किन्तु आगे चलकर जैन परम्परा में दर्शन शब्द श्रद्धा के अर्थ में स्द हो गया। जैन ग्रन्थों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि दर्शन शब्द का श्रद्धापरक अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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