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________________ 15 भगवान महावीर का जीवन और दर्शन लोकमंगल के सृजन के लिए निजी सुखाकांक्षाओं से, स्वार्थों से, अहम से, मैं और मेरे के भाव से ऊपर उठना आवश्यक होता है। इसीलिए चाहे वे महावीर हों या चाहे बुद्ध हों या अन्य कोई, लोकमंगल के लिए तो अपने आपको पूरी तरह से लौकिक ऐषणाओं, वासनाओं और कषायों से ऊपर उठाना होगा। ममत्व और मेरेपन के घेरे को समाप्त करना होगा। महावीर के सम्बन्ध में जो बात मैं आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूँ उसमें मुख्य है महावीर की वैचारिक उदारता। समाज में अगर कोई संघर्ष है तो उस संघर्ष का समाधान वैचारिक उदारता के बिना सम्भव नहीं है। विचारों के प्रति भी ममत्व या आग्रह को समाप्त करना होगा। इसलिए महावीर ने तो कभी यह भी नहीं कहा कि मैं किसी नवीन धर्म का प्रवर्तन कर रहा हूँ न कोई नवीन सिद्धान्त तुम्हें दे रहा हूँ। महावीर ने विनय भाव से यही कहा कि -- "समियाए आयरिए धम्मे पवेइए" आर्यजनों के समभाव में धर्म कहा है। महावीर की इस विनम्रता और उदारता को समझिये और उससे प्रेरणा लिजिये। आचारांग में वे कहते हैं -- "जे अरहन्ता भगवन्ता पडिपुन्ना, जे वा आगमिस्सा, जे वा आसि ते सव्वे इमं भासंति, परुति सव्वे सत्ता न हन्तव्वा, एस धम्मो सुद्धो णिच्चो सासयो।" जो अरहंत हो चुके हैं, जो होंगे और जो हैं, वे सब एक ही बात कहते हैं कि किसी भी प्राणी को दुःख या पीड़ा नहीं देना चाहिए। यही शुद्ध नित्य और शाश्वत धर्म है। इसलिए मेरा निवेदन है कि महावीर को किसी धर्म विशेष के साथ बाँधे नहीं। उनको किसी एक धर्म और सम्प्रदाय के साथ बाँध करके हम उनके साथ न्याय नहीं कर पायेंगे। मुझे आश्चर्य लगता है कि जब विद्वान यह कहते हैं कि भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक हैं। मित्रों विचार करें। यह जैन शब्द कब का है ? छठी शताब्दी के पहले हमें "जैन" शब्द का कहीं उल्लेख ही नहीं मिलता। जब भी महावीर से कोई उनका परिचय पूछता था तो वे कहते थे -- मैं श्रमण हूँ, निर्गन्थ हूँ। निर्गन्थ कौन हो सकता है ? महावीर कहते थे "जे मणं परिजाणइ से निर्गन्थे -- जो मन का द्रष्टा है वही निर्गन्थ है। महावीर अपने आपको किसी घेरे में बांध करके खड़ा होना ही नहीं चाहते थे। जो भी मन का द्रष्टा है, जो अपने विचारों का, विकारों का और अपनी वासनाओं का साक्षी है, द्रष्टा है वही निर्गन्थ है। अपने हृदय की ग्रन्थि को देख लेना, यही निर्गन्थ की पहचान है। उनकी साधना यात्रा प्रारम्भ होती थी अन्तरदर्शन से, अन्दर झांकने से। यही उनका आत्मदर्शन था। महावीर ने जो सिखाया वह यही कि व्यक्ति अपने अन्दर देखें, अपने आपको परखे। क्योंकि यही वह मार्ग था जो कि व्यक्ति को अपने आध्यात्मिक विकास की दिशा में ले जाता है। महावीर ने सम्पूर्ण जीवन में जो कुछ कहा और जो कुछ किया उसका मूलभूत सार तत्त्व यही है। महावीर जीवन पर्यन्त यही कहते रहे -- ज्ञाता और द्रष्टा बनों। यही वह मूल आधार है जहाँ स्थित होकर आत्म विश्लेषण के द्वारा हम अपनी और समाज की सारी समस्याओं को समझ सकते हैं। आज हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपने भीतर के वासनाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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