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________________ प्रो. सागरमल जैन (1) प्रत्येक क्षण में आयु कर्म के परमाणु भोग के पश्चात् पृथक् होते रहते हैं । जिस समय वर्तमान आयुकर्म के पूर्वबद्ध समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं उस समय प्राणी को वर्तमान शरीर छोड़ना पड़ता है। वर्तमान शरीर छोड़ने के पूर्व ही नवीन शरीर के आयुकर्म का बन्ध हो जाता है। लेकिन यदि आयुष्य का भोग इस प्रकार नियत है तो आकस्मिकमरण की व्याख्या क्या ? इसके प्रत्युत्तर में जैन- विचारको ने आयुकर्म का भोग दो प्रकार का माना क्रमिक (2) आकस्मिक । क्रमिक भोग में स्वाभाविक रूप से आयु का भोग धीरे-धीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक भोग में किसी कारण के उपस्थित हो जाने पर आयु एक साथ ही भोग ली जाती है। इसे ही आकस्मिकमरण या अकाल मृत्यु कहते हैं । स्थानांगसूत्र में इसके सात कारण बताये गये हैं (1) हर्ष - शोक का अतिरेक, (2) विष अथवा शस्त्र का प्रयोग, ( 3 ) आहार की अत्यधिकता अथवा सर्वथा अभाव ( 4 ) व्याधिजनित तीव्र वेदना, ( 5 ) आघात (6) सर्पदंशादि और ( 7 ) श्वासनिरोध । 6. नाम कर्म 122. I जिस प्रकार चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नाम-कर्म विभिन्न कर्म परमाणुओं से जगत् के प्राणियों के शरीर की रचना करता है मनोविज्ञान की भाषा में नाम-कर्म को व्यक्तित्व का निर्धारक तत्त्व कह सकते हैं। जैन-दर्शन में व्यक्तित्व के निर्धारक तत्त्वों को नामकर्म की प्रकृति के रूप में जाना जाता है, जिनकी संख्या 103 मानी गई है लेकिन विस्तारभय से उनका वर्णन सम्भव नहीं है। उपर्युक्त सारे वर्गीकरण का संक्षिप्त रूप है 1. शुभनामकर्म ( अच्छा व्यक्तित्व ) और 2 अशुभनामकर्म (बुरा व्यक्तित्व ) । प्राणी जगत् में, जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य दिखाई देता है, उसका आधार नामकर्म है । ―― -- —— शुभनाम कर्म के बन्ध के कारण जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण माने गये हैं। 1. शरीर की सरलता, 2. वाणी की सरलता, 3. मन या विचारों की सरलता, 4. अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना या सामंजस्यपूर्ण जीवन । शुभनामकर्म का विपाक उपर्युक्त चार प्रकार के शुभाचरण से प्राप्त शुभ व्यक्तित्व का विपाक 14 प्रकार का माना गया है (1) अधिकारपूर्ण प्रभावक वाणी ( इष्ट- शब्द ) ( 2 ) सुन्दर सुगठित शरीर (इष्ट-रूप) ( 3 ) शरीर से निःसृत होने वाले मलों में भी सुगंधि ( इष्ट-गंध) ( 4 ) जैवीय - रसों की समुचितता ( इष्ट-रस ) ( 5 ) त्वचा का सुकोमल होना (इष्ट-स्पर्श) ( 6 ) अचपल योग्य गति (इष्ट- गति) (7) अंगों का समुचित स्थान पर होना (इष्टट-स्थिति) ( 8 ) लावण्य ( 9 ) यशः कीर्ति का प्रसार (इष्ट-यशः कीर्ति ) ( 10 ) योग्य शारीरिक शक्ति (इष्ट- उत्थान, कर्म, बलवीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम ) ( 11 ) लोगों को रूचिकर लगे ऐसा स्वर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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