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________________ जैनदर्शन : एक अनुचिन्तन साक्षात्कार में बाधक हैं। जैन साधना की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग और अनाग्रही दृष्टि का निर्माण आवश्यक है और इसके माध्यम से प्राप्त ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान का अर्थ है वस्तु को उसके अनन्त पहलुओं से जानना। जैनधर्म में सम्यक्-ज्ञान का अर्थ आत्म-अनात्म का विवेक भी है। यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता, उसे ज्ञाता-ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा सकता, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान-स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता कभी ज्ञेय नहीं बन सकता, अतः आत्मज्ञान दुरूह है। लेकिन अनात्म तत्त्व तो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं। सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या हैं ? और इससे वह यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि जो उसके ज्ञान के विषय हैं, वे उसके स्वस्वरूप नहीं हैं, वे अनात्म है। सम्यग्ज्ञान आत्म-ज्ञान है, किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है। अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म से आत्म का भेद करना यही भेद विज्ञान है और यही जैनदर्शन में सम्यक् ज्ञान का मूल अर्थ है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में इसे भेद- विज्ञान कहा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार जो कोई सिद्ध है वे इस आत्म-अनात्म के विवेक या भेद-विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं, वे इसके अभाव के कारण ही हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया है। सम्यक-चारित्र -- जैन परम्परा में साधना का तीसरा चरण सम्यक-चारित्र है। इसके दो रूप माने गए हैं १. व्यवहारचारित्र और २.निश्चयचारित्र। आचरण का बाह्य पक्ष या आचरण के विधि-विधान व्यवहारचारित्र कहे जाते हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चयचारित्र कही जाती है। व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मकचारित्र ही उसका मूलभूत आधार है। लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है, चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है। निश्चय दृष्टि (Real view point) से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि हैं। वस्तुतः चारित्र का यह पक्ष आत्म-रमण की स्थिति है। नैश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में जब राग-द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शान्त हो जाती है तभी सच्चे नैतिक एवं धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। व्यवहारचारित्र का सम्बन्ध आचार के नियमों के परिपालन से है। व्यवहारचारित्र को सर्वव्रती और देशव्रतीचारित्र -- ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है। देशव्रतीचारित्र का सम्बन्ध गृहस्थ उपासकों से और सर्वव्रतीचारित्र का सम्बन्ध श्रमण वर्ग से है। जैन-परम्परा में गृहस्थाचार के अन्तर्गत अष्टमूलगुण, षट्कर्म, बारह व्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का पालन आता है। श्रमणाचार के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, रात्रि भोजन-निपेध, पंचसमिति, तीन गुप्ति, दस यतिधर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ, बाईस परीपह, अट्ठाइस मूलगुण, बावन अनाचार आदि का विवेचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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