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________________ प्रो. सागरमल जैन 100 समक्ष उपस्थित नहीं होती है। जिस प्रकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शरीर-रसायनों के परिक्ष से संवेग ( मनोभाव) उत्पन्न होते हैं और उन संवेगों के कारण ही शरीर-रसायनों में पति होता है। यही स्थिति आत्मा की भी है। पूर्व कर्मों के कारण आत्मा में राग-द्वेष आदि मन उत्पन्न (उदित) होते हैं और इन उदय में आये मनोभावों के क्रियारूप परिणित होने पर अ नवीन कर्मों का संचय करता है। बन्धन की दृष्टि से कर्मवर्गणाओं के कारण मनोभाव उती। होते हैं और उन मनोभावों के कारण जड़ कर्मवर्गणाएँ कर्म का स्वरूप ग्रहण कर आत्मा बन्धन में डालती हैं। जैन विचारकों के अनुसार एकान्त रूप से न तो आत्मा स्वतः ही बन्द का कारण है, न कर्मवर्गणा के पुद्गल ही। दोनों निमित्त एवं उपादान के रूप से एक दूसरे । संयुक्त होकर ही बन्धन की प्रक्रिया को जन्म देते हैं। द्रव्यकर्म और भावकर्म कर्मवर्गणाएँ या कर्म का भौतिक पक्ष, द्रव्यकर्म कहलाता है। जबकि कर्म की चैतसि। अवस्थाएँ अर्थात् मनोवृत्तियाँ, भावकर्म है। आत्मा के मनोभाव या चेतना की विविध विकासि अवस्थाएँ भावकर्म है और ये मनोभाव जिस निमित्त से उत्पन्न होते हैं, वह पुद्गल-द्रव द्रव्यक है। आचार्य नेमिचन्द गोम्मटसार में लिखते हैं कि पुदगल द्रव्यकर्म है और उसकी चेतन को प्रभावित करने वाली शक्ति भावकर्म है17 | आत्मा में जो मिथ्यात्व और कषाय अथर्व राग-द्वेष आदि भाव है, वे ही भाव कर्म हैं और उनकी उपस्थिति में कर्मवर्गणा के जो पुद्गल परमाणु ज्ञानावरण आदि कर्मप्रकृतियों के रूप में परिणत होते हैं, वे ही द्रव्यकर्म हैं। द्रव्यकर्म का कारण भावकर्म है और भावकर्म का कारण द्रव्य कर्म है। आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टसहस्त्री में द्रव्यकर्म को आवरण व भावकर्म को दोष कहा है। चूंकि द्रव्यकर्म आत्मशक्ति के प्रकटन को रोकता है, इसलिए वह आवरण है और भाव कर्म स्वयं आत्मा की विभाव अवस्था है, अतः वह दोष है181 कर्मवर्गणा के पुद्गल तब तक कर्म रूप में परिणित नहीं होते हैं, जब तक ये भावकों द्वारा प्रेरित नहीं होते हैं। किन्तु साथ ही यह भी स्मरण रखना होगा कि आत्मा में जो विभावदशाएँ हैं, उनके निमित्त कारण के रूप में द्रव्यकर्म भी अपना कार्य करते हैं। यह सत्य है कि दूषित मनोविकारों का जन्म आत्मा में ही होता है, किन्तु उसके निमित्त (परिवेश) के रूप में कर्मवर्गणाएँ अपनी भूमिका का अवश्य निर्वाह करती हैं। जिस प्रकार हमारे स्वभाव में परिवर्तन का कारण हमारे जैव-रसायनों एवं रक्त-रसायनों का परिवर्तन है। उसी प्रकार कर्मवर्गणाएँ हमारे मनोविकारों के सृजन में निमित्त कारण होती है। पुनः जिस प्रकार हमारे मनोभावों के आधार पर हमारे जैव-रसायन एवं रक्तरसायन में परिवर्तन होता है, वैसे ही आत्मा में विकारी भावों के कारण जड़ कर्मवर्गणा के पुद्गल कर्म रूप में परिणित हो जाते हैं। अतः द्रव्यकर्म और भावकर्म भी परस्पर सापेक्ष है। पं. सुखलाल जी लिखते हैं भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म के होने में भावकर्म निमित्त है19 | दोनों आपस में बीजांकुर की तरह सम्बद्ध हैं। जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज उत्पन्न होता है। उनमें किसी को पूर्वापर नहीं कहा जा सकता है, वैसे इनमें भी किसी की पूर्वापरता का निश्चय नहीं हो मा है। प्रत्येक द्रव्यकर्म की अपेक्षा से भावकर्म पूर्व होगा तथा प्रत्येक भावकर्म की अपेक्षा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525017
Book TitleSramana 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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