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________________ जैन दार्शनिक साहित्य में ईश्वरवाद की समालोचना [शोध-प्रबन्ध-सार] - श्रीमती मंजुला भट्टाचार्य __ भारतीय दर्शनों में सामान्यतया जैन, बौद्ध और चार्वाक दर्शन को नास्तिक और अनीश्वरवादी दर्शन कहा जाता है। यद्यपि आस्तिक दर्शन में भी मीमांसा और सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी दर्शन कहे जा सकते हैं क्योंकि इन दर्शनों में भी न केवल ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व का निषेध है, अपितु इनमें ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा का भी अभाव पाया जाता है। कुछ दार्शनिक ऐसा भी मानते हैं कि सांख्य दार्शनिकों का एक वर्ग ऐसा रहा है, जो ईश्वर को स्वीकार करता है, उसे सेश्वर सांख्य दर्शन के नाम से जाना जाता है। योग दर्शन में यद्यपि एक आदर्श के रूप में ईश्वर की अवधारणा उपस्थित है फिर भी उसमें ईश्वर को सृष्टि कर्ता नहीं माना गया। अद्वैत वेदान्त में ब्रहम को जगत का अधिष्ठान मानकर भी उसे तार्किक दष्टि से सृष्टिकर्ता स्वीकार नहीं किया गया है। सृष्टिकर्ता के रूप में उन्होंने माया से युक्त ब्रह्म के रूप में ईश्वर की अवधारणा को प्रस्तुत किया है। सामान्यरूप में भारतीय दर्शनों में न्याय-वैशेषिक और उत्तर मीमांसा (वेदान्त के कुछ सम्प्रदाय) ही ऐसे दर्शन हैं, जो ईश्वर को सृष्टि कर्ता के रूप में स्वीकर करते हैं। अन्य सभी दर्शनों ने या तो इस सम्बन्ध में मौन रखा है या फिर इस अवधारणा की समीक्षा की है। __ भारतीय दर्शन में जिन दर्शनों ने ईश्वरवाद की समीक्षा की है, उनमें चार्वाक, जैन और बौद्ध प्रमुख हैं। यत्र-तत्र उधत कुछ श्लोकों और तत्वोत्पल्लवसिंह को छोड़कर चार्वाक दर्शन का अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है। इस दर्शन में ईश्वरवाद की संक्षिप्त समीक्षा ही उपलब्ध होती है। कोई विस्तृत समीक्षात्मक विवरण उपलब्ध नहीं होता है। ईश्वरवाद की समीक्षा के संदर्भ में जैन और बौद्ध साहित्य में प्राचीन काल से ही उल्लेख मिलते हैं। मध्य युग में तो इस सम्बन्ध में विपुल समीक्षात्मक साहित्य लिखा गया है। __ जैन दर्शनिकों ने नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को स्वीकार करते हुए भी वैयक्तिक श्वर और ईश्वर के सृष्टि कर्तृत्व की समीक्षा की है। जैन दार्शनिकों के अनुसार वैयक्तिक मात्मा ही नैतिक सद्गुणों का आचरण करते हुए अपने कर्ममल का शोधन करके रिमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। उनके अनुसार प्रत्येक आत्मा में परमात्मा होने की मता निहित है। "अप्पा सो परमप्पा" जैन दर्शन का मूल मंत्र है। उनके अनुसार प्रत्येक मात्मा परमात्मा स्वरूप है। जैसे बीज में वृक्ष अव्यक्त रूप से निहित होता है उसी प्रकार आत्मा ( परमात्मा प्रसुप्त या निहित है। फिर भी वे परमात्मा को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525012
Book TitleSramana 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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