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________________ 34 श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १६ म : तर्क को व्याप्ति ग्राहक मानकर जैन दार्शनिकों ने स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान की भांति पृथक प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया है। बौद्ध ग्रन्थों में तक्कि, विमंसी आदि शब्दों का प्रयोग अवश हुआ है, किन्तु तर्क की पृथक चर्चा नहीं की गयी है। न्यायदर्शन में तर्क को षोडश पदार्थों स्थान दिया गया है किन्तु जैनदर्शन में प्रतिष्ठित तर्क प्रमाण उससे भिन्न है। जैन दर्शन में तक को व्याप्ति का अवधारणात्मक ज्ञान माना गया है। तर्क के द्वारा जैन दार्शनिकों ने त्रैकालिक व्याप्ति का ग्रहण स्वीकार किया है, जो उनके चिन्तन की गहनता को स्पष्ट करता है न्यायदार्शनिकों ने व्याप्ति का ग्रहण सामान्यलक्षण नामक अलौकिक सन्निकर्ष से किया है, और ने प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ से किया है, किन्तु जैन दार्शनिकों द्वारा इसके लिए तर्क को पत्र प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया जाना विचारणीय है। न्याय-मीमांसा दर्शनों की भांति जैनदर्शन में शब्द या आगम को पृथक प्रमाण मान गया है। बौद्ध दार्शनिक शब्द का अर्थ के साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं मानते हैं,93 अतः वे अपो के दाग शब्द की विवक्षा का अनुमित होना स्वीकार कर 4 शब्द को अनुमानप्रमाण में समाधि कर लेते हैं। जैन दार्शनिकों ने बौद्धमत का प्रबल खण्डन किया है। वे शब्द के साथ अर्थ व संकेत सम्बन्ध स्वीकार करते हैं। उनका मन्तव्य है कि जो शब्द अविसंवादक रूप से वे का कथन करते हैं, वे प्रमाण हैं।97 बौद्धमत का खण्डन करते हुए जैन दार्शनिक कहते हैं कि विवक्षा से अन्यत्र भी शब्द का प्रामण्य होता है तथा विवक्षा भी शब्द से व्यभिचरित हो सकते है। इसलिए विवक्षा के कारण शब्द का अनुमान-प्रमाण में अन्तर्भाव करना उचित नहीं है। बौद्ध दार्शनिक शब्द को अर्थ का वाचक नहीं मानकर उसे अन्यापोह के द्वारा अर्थ का प्रतिपादक मानते हैं।100 जैन दार्शनिकों ने शब्द का अर्थ से योग्यता सम्बन्ध स्वीकार कर अपोह का पर्याप्त निरसन किया है जिसमें कुमारिल भट्ट एवं वाचस्पतिमिश्र का भी प्रभाव है। MSRTMENT अन्त में यह कहा जा सकता है कि जैन एवं बौद्ध दोनों दर्शनों में प्रमाण-निरूपण उनकी अपनी तत्त्वमीमांसा से प्रभावित है। श्रमण परम्परा की दृष्टि से एक होकर भी इन दर्शनों की प्रमाण विषयक अवधारणाओं में अनेक मौलिक मत-भेद हैं। प्रमाण को ज्ञानात्मक प्रतिपादित करने, प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य को अभ्यास दशा में स्वतः एवं अनभ्यास दशा में परतः स्वीकार करने, अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थ भेद मानने आदि में जैन और बौद्ध दार्शनिक एकमत है, वे प्रमाण-लक्षण, प्रत्यक्ष-लक्षण, अनुमान-प्रमाण, हेतुलक्षण, हेतु-भेद, आगम-प्रमाण आदि के सन्दर्भ में पारस्परिक मतभेद भी रखते हैं। सम्पूर्ण प्रमाण-विवेचन में जैन दार्शनिकों की दृष्टि या तो आगम-सापेक्ष रही है संव्यवहार-सापेक्ष। सांव्यवहारिक दृष्टि को अपना कर ही जैन दार्शनिक प्रमाण-मीमांसा वैचारिक युद्ध में उतर पाए हैं। स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण मानना एवं प्रत्यक्ष की सांव्यवहारिक रूप प्रस्तुत करना उनकी संव्यवहार-सापेक्ष दृष्टि का परिचायक है। ज्ञान के उत्पत्ति में अर्थ, आलोक आदि को कारण नहीं मानकर उसे ज्ञानावरण कर्म के क्षय के क्षयोपशम से प्रकट होना स्वीकार करना उनकी आगम-सापेक्ष दृष्टि को स्पष्ट करता है। में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525012
Book TitleSramana 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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