SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 30 श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १६ इसलिए वह प्रत्यक्ष के समान अविसंवादक होने से प्रमाण है।65 इस प्रकार त्रिरूपलिंगजन्य ज्ञान विकल्पात्मक एवं भ्रान्त होकर भी अविसंवादक होने के कारण बौद्धदर्शन में अनुमान प्रमाण के रूप में अभीष्ट है। __ जैनदार्शनिकों ने बौद्ध सम्मत अनुमान-प्रमाण में अविसंवादकता स्वीकार नहीं की है क्योंवि उसके ग्राह्यविषय सामान्यलक्षण से उसका अध्यवसेय विषय स्वलक्षण एकदम भिन्न है। ग्राहद एवं अध्यवसेय विषयों की भिन्नता संवादकता सिद्ध नहीं करती। विद्यानन्दि बौद्ध अनुमान का खण्डन करते हुए कहते हैं कि अनुमान का आलम्बन प्रत्यय सामान्तलक्षण जब अवस्तुभूत है ते उससे प्राप्त स्वलक्षण वास्तविक नहीं हो सकता। दिङ्नाग ने अनुमान प्रमाण के स्वार्थ एवं परार्थ भेदों का प्रतिपादन भारतीय दर्शन में पहली बार किया जो जैनों द्वारा भी आदत हुए। जैनेतर एवं बौद्धेतर अर्थात् श्रमणेतर दर्शनों ने भी उन्हें अपनाया। न्यायदर्शन के पूर्ववत्, शेषवत् एवं सामान्यतोदृष्ट भेदों का अनुयोगदारसूत्र उपायहृदय आदि ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। किन्तु स्वार्थ एवं परार्थ भेदों के प्रतिष्ठित होने के अनन्तर पूर्ववत् आदि अनुमान-त्रय को जैन-बौद्ध ग्रन्थों में प्रायः स्थान नहीं मिला। जैन एवं बौद्ध दार्शनिकों में अनुमान-प्रमाण के सम्बन्ध में सबसे अधिक विवाद हेतुलक्ष्य को लेकर है। बौद्ध दार्शनिक हेतु में पक्षधर्मत्व, समक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्व इन तीन रूपों का होना आवश्यक मानते हैं। जो हेतु इन तीन रूपों से युक्त नहीं होता उसे वे असद् हेतु अथवा हेत्वाभास कहते हैं। धर्मकीर्ति ने न्यायबिन्दु में त्रैरुप्य का प्रतिपादन अवधारणार्थक एवं (ही) शब्द का प्रयोग करते हुए इस प्रकार किया है - 'त्रैरुप्यं पुनर्लिंगस्यानुमेये सत्त्वमेव, सपक्ष एवं सत्त्वम्, असपक्षे चासत्त्वमेव निश्चितम् ०० अर्थात् (1) हेतु का अनुमेय अर्थ में होना ही निश्चित हो (2) हेतु का सपक्ष में होना ही निश्चित हो तथा (3) हेतु का असपक्ष अथव विपक्ष में नहीं होना ही निश्चित हो। हेतु के ये तीन रूप क्रमशः असिद्ध, विरुद्ध एवं अनैकान्तिक दोषों का परिहार करते हैं, अतः वेरुप्य को ही बौद्धमत में हेतु का लक्षण अंगीकार किया गया है।69 जैनदार्शनिकों की यह दृढ़ धारणा रही है कि हेतु का एक ही लक्षण है और वह है -- उसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव। वे त्रिरूपता के अभाव में भी अविनाभाव के बल पर पूर्वचर, उत्तरचर आदि हेतुओं को सदहेतु के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं तथा त्रैरुप्य के सद्भाव से युक्त एवं अविनाभाव से रहित हेतु को हेत्वाभास सिद्ध करते हैं। यथा- गर्भस्व मैत्रीपुत्र श्यामवर्ण है क्योंकि वह मैत्री का पुत्र है, उसके अन्य पुत्रों के समान। यहाँ मैत्रीपुत्रत्व हेतु गर्भस्थ पुत्र रूप पक्ष में विद्यमान है, मैत्री के अन्य पुत्रों रुप सपक्ष में विद्यमान है तथा विपक्ष में अन्य स्त्रियों के गौरवर्ण पुत्रों में विद्यमान नहीं है। इस प्रकार तीन स्पों से युक्त होने पर भी मैत्रीपुत्रत्व हेतु साध्याविनाभाविता के अभाव के कारण असद हेतु है। गौतमानुयायी नैयायिक भी इसे औपाधिक सम्बन्ध के कारण हेत्वाभास मानते हैं। वे साध्य के साथ हेतु का स्वाभाविक सम्बन्ध आवश्यक मानते हैं। वही जैन दर्शन में अविनाभाव के रूप में अभिव्यक्त किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525012
Book TitleSramana 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy