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________________ 24 श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १६ 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' में प्रयुक्त अपूर्व शब्द इसका स्पष्ट उदाहरण है। 29 प्रभाचन्द्र ने भी प्रमाण को कथंचित् अपूर्व अर्थ का ग्राहक, सिद्ध किया है। 26 विद्यानन्दि ने अपूर्व या अनधिगत विशेषण को व्यर्थ बतलाकर स्व एवं अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा है। 27 श्वेताम्बर जैन दार्शनिकों ने प्रमाण- लक्षण में अपूर्व एवं अनधिगत पदों का ग्रहण नहीं किया है क्योंकि उनके मत में गृहीतग्राही ज्ञान भी प्रमाण है। हेमचन्द्र ने ग्रहीष्यमाण के समान गृहीत के ग्राही ज्ञान को भी प्रमाण प्रतिपादित कर उसके अनधिगतग्राहित्व विशेषण का निरसन किया है। 28 वस्तुतः अनधिगत विषय के ग्राहकत्व को प्रमाण का विशेषण बनाना अकलंक पर तत्कालीन श्रमण संस्कृति की अन्य दार्शनिक धारा अर्थात् बौद्धों का प्रभाव है। इसीलिए अपने एक अन्य टीका ग्रन्थ तत्त्वार्थवार्तिक में उन्होंने स्वयं अज्ञात अर्थ के ज्ञापक ज्ञान को प्रमाण मानने का खण्डन किया है तथा दीपक का दृष्टान्त देकर ज्ञात अर्थ के प्रकाशक ज्ञान को भी प्रमाण सिद्ध किया है। 29 अकलंक ने लघीयस्त्रय में प्रमाण का एक ऐसा लक्षण दिया है जिसमें अनधिगत या अपूर्व पद का प्रयोग नहीं कर 'आत्मा एवं अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण' कहा है। 30 यही जैन दर्शन में प्रमाण का मुख्यलक्षण बनकर प्रतिष्ठित हुआ है। भारतीय दर्शन में बौद्धों के अतिरिक्त मीमांसकों ने भी प्रमाण को अनधिगत अर्थ का ग्राहक प्रतिपादित किया है। बौद्ध एवं मीमांसकों में पहले अनधिगतार्थगन्तृता को प्रमाण का लक्षण किसने प्रतिपादित किया इस विषय में अभी तक स्पष्ट मत सामने नहीं आया है। श्त्रवात्स्की आदि विद्वान् इस विषय में मौन हैं. किन्तु डॉ. धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री का मत है कि संभवतः बौद्ध प्रभाव से मीमांसकों ने उनके प्रमाण लक्षण में अनधिगतार्थगन्तृता को स्थान दिया । 31 उनका यह मत उचित प्रतीत होता है क्योंकि शबरस्वामी तक मीमांसा दर्शन में प्रमाण का यह लक्षण नहीं मिलता है, दूसरी बात यह है कि मीमांसा दर्शन की तत्त्वमीमांसा इसके अनुकूल नहीं है। यही कारण है कि प्रमाण के अनधिगतार्थगन्तृत्व लक्षण का खण्डन नैयायिकों एवं जैन दार्शनिकों ने प्रायः मीमांसकों को लक्ष्य करके किया है, बौद्धों को लक्ष्य करके नहीं। लक्षण साम्य के कारण वह खण्डन बौद्धों पर भी लागू हो जाता है। निरंश क्षणिकवादी बौद्धों की तत्त्वमीमांसा को स्पष्ट करने के लिए प्रमाण को अज्ञातार्थज्ञापक मानता उपयुक्त हो सकता है, किन्तु नित्यानित्यवादी जैन दार्शनिकों के मत में प्रमाण गृहीत अर्थ का भी ग्राही होता है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि को प्रमाण मानना इसका पोषक तथ्य है। बौद्धदर्शन में निरूपित द्वितीय लक्षण प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्' का जहाँ तक प्रश्न है, अकलंक से लेकर हेमचन्द्र तक सभी जैनदार्शनिक अविसंवादक शब्द से विरोध प्रकट नहीं करते हैं किन्तु बौद्ध तत्वमीमांसा एवं प्रमाणमीमांसा में उसकी अनुपपन्नता सिद्ध करते हैं। जैन दार्शनिकों ने अविसंवादक शब्द को जैन प्रमाण लक्षण में भी घटित किया है । 32 अविसंवादक शब्द का अर्थ जैन दार्शनिक अकलंक ने प्रमाणान्तरों से अबाधित एवं पूर्वापर विरोध से रहित ज्ञान को अविसंवादक कहा है। 33 इसी अर्थ में जैन दर्शन में अविसंवादक का अभीष्ट है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525012
Book TitleSramana 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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