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t. इन्दु
जैन-धर्म में अहिंसा एवं सन्तोष व्रत की रक्षा एवं महातृष्णा से निजात पाने हेतु तथा जीवन शान्ति लाने के लिए जीवनोपयोगी सामग्रियों - उपभोग और परिभोग की सामग्रियों - की मर्यादा निश्चित की गयी है। ___ अहिंसा एवं अपरिग्रह के पोषण एवं रक्षा हेतु अनर्थदण्ड विरमण गुणव्रत का विधान किया भया है अर्थात् अपने और परिवार के जीवन-निर्वाह के लिए अनिवार्य हिंसापूर्ण (जिसमें कम से कम हिंसा हो) व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापवृत्तियों से निवृत्त होना चाहिए। सामान्यतया वह देखा जाता है कि बड़े-बड़े व्यापारों द्वारा, जिसमें व्यक्ति अधिक से अधिक संचय करने की इच्छा रखता है, उचित-अनुचित के विवेक के अभाव में शोषण को बढ़ावा देता है। अनर्थ दण्डविरमण का मुख्य उद्देश्य है - निष्प्रयोजन किये जाने वाले कर्मों से सामान्य जन को बचाना। निरर्थक प्रवृत्तियाँ अनुशासनहीनता और विवेकहीनता की प्रतीक हैं। अतः यह कहना अत्युक्ति नहीं कि जैन-धर्म द्वारा प्रतिपादित अणुव्रतों ने उसे वर्तमान समय में और भी प्रासंगिक बना दिया है।
प्रायः संन्यास को समाज विरोधी समझा जाता है। मेरी दृष्टि में इस प्रमाद का एक कारण सन्यास के वास्तविक अर्थ को न समझना तो है ही, साथ ही एक अन्य कारण है हमारे समाज में संन्यास के नाम पर ढोंग करने वाले उन लोगों की उपस्थिति, जो अपने परिवार के ति, समाज के प्रति किये जाने वाले कर्तव्यों से स्वयं को बचाने के लिए गेरुआ वस्त्र धारण रके, भिखारी जीवन व्यतीत करते हुए, समाज पर बोझ बने रहते हैं। यह ठीक है कि संन्यास ग्रहण करते समय व्यक्ति वित्तैषणा, पुत्रैषणा एवं लोकैषणा के त्याग का संकल्प लेता
पर इससे वह समाज विमुख नहीं सिद्ध होता है, क्योंकि वित्तैषणा आदि का त्याग आसक्ति का त्याग है, स्वार्थ एवं ममत्व का परित्याग है, समाज का नहीं। अपनी आसक्ति से विमुख किर ही व्यक्ति समाज कल्याण की ओर उन्मुख होता है, व्यष्टि में समष्टि के दर्शन करता है। द्र और महावीर का जीवन इसका ज्वलन्त उदाहरण है। भगवान् बुद्ध ने स्वयं कहा था वरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय देव निस्सान।' (विनय पिटक-महावग्ग ) । अतः यदि मैं यह कहूँ कि आदर्श समाज की स्थापना के लिए प्रत्येक व्यक्ति को संन्यासी होना चाहिए, तो अत्युक्ति न होगी। गीता में भी कहा गया कि काम्य अर्थात् राग युक्त कर्मों का त्याग ही मोक्ष है (गीता 18/2)। निरग्नि एवं निष्क्रिय जाना संन्यास नहीं है, सच्चा संन्यास या योग वह है, जो समाज में रहकर लोक-कल्याण तू अनासक्त भाव से कर्म करता रहे। (गीता 6/1 )।
इसी सन्दर्भ में मोक्ष की सार्थकता का विवेचन भी अप्रासंगिक न होगा। अवधेय है कि मोक्ष ॥ संन्यास का ही पर्याय है। हमारे कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ ही हमारे सामाजिक जीवन में बाधक तत्त्व हैं और मोक्ष इन प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इसी अर्थ में मोक्ष की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता भी है क्योंकि यही एक सा मार्ग है जिससे हमारे जीवन में सत्यं, शिवं, सुन्दरं की स्थापना हो सकती है। आज का नव ऐसी तत्त्वमीमांसा स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है जिसके अनुसार दर्शन का उद्देश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only
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