SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दु 3 सत् संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, क्रूरता, स्वार्थपरता, विश्वासघात की भावना कसित होती है। लोभ ही तृष्णा जो कि समस्त अनर्थों की मूल है - की जड़ है। मान षाय पद, प्रतिष्ठा, यश- - लिप्सा, सघ-वृद्धि आदि के रूप में बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को भी पथ ष्ट करने से नहीं चूकता है । - अतः यह कहना अनुचित न होगा कि ये कषाय ही समस्त व्यक्तिगत एवं सामाजिक उत्पातों के मूल हैं। यदि हम सामाजिक विषमताओं, जिसे समाप्त करना आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता प्रतीत होती है, को समाप्त कर, सामाजिक समत्व की स्थापना करना वाहते हैं तो हमें इन कषायों के उन्मूलन हेतु जैन-दर्शन द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुसरण करना पड़ेगा । • अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे व्रतों को अणुव्रत के रूप में पंचमहाव्रतों के अलावा) प्रस्तुत करके और इन अणुव्रतों के माध्यम से सामाजिक समस्याओं , जो हल ढूँढ़ निकाला गया है, वह अपने आप में जैन-दर्शन की महत्ता को वर्तमान सन्दर्भ में प्रतिपादित करने की दिशा में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अणुव्रतों का विधान जन-सामान्य (भावक और श्राविका ) के लिए किया गया है, जो कि अहिंसादि पंचव्रतों का पालन कठोरता पंचमहाव्रतों के रूप में) से नहीं कर सकते। यों तो अणुव्रतों की संख्या पाँच ही है, पर चूँकि नकी सुरक्षा एवं विकास के लिए अर्थात् अणुव्रतों के सही रूप से पालन हेतु इन्हें व्यावहारिक | देने की दृष्टि से तीन गुणव्रतों एवं चार शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है और इन्हें भी अणुव्रतों के नाम से ही जाना जाता है, इस प्रकार अणुव्रतों की संख्या बारह हो गयी है I आज विश्व के देश, विश्व को एकाधिक बार समूल विनाश कर डालने में समर्थ आणविक थियारों का संग्रह करने के बाद तनाव के वातावरण में जी रहें हैं। ऐसे सन्दर्भ में महावीर के प्रदेश जीवनदायी सिद्ध हो सकते हैं । मानव अस्तित्व को सुरक्षित रखने की दिशा में जैन-धर्म 'अहिंसा सिद्धान्त समीचीन है। जैन अहिंसा का न केवल निषेधात्मक प्रतिपादन करते हैं, स्युत उसका सकारात्मक पक्ष भी दशति हैं। अहिंसा का आशय दया, करुणा, प्रेम, मैत्री, भाव एवं परस्पर सहयोग का विकास है, जिसकी वर्तमान समय में महती आवश्यकता है । राव्य-अकर्तव्य एवं न्याय-अन्याय के विवेक से ही अहिंसा की रक्षा हो सकती है। बढ़ती हुई पण प्रवृत्ति, स्वार्थपरता एवं एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ हिंसा को प्रोत्साहित करती जैन-दर्शन के अनुसार सत्य और अहिंसा परस्पर अन्योन्याश्रित एवं पूरक हैं । सत्य से व्यक्ति में सच्चाई और ईमानदारी का विकास होता है । सत्य के अभाव में अहिंसा अन्धी | अहिंसा के अभाव में सत्य पंगु एवं कुरूप होता है । अस्तेय जिस रूप में गृहस्थों के लिए स्वीकृत माना गया है उसे स्थूल अदत्तादान विरमण ते हैं अर्थात् बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना स्तेय या अदत्तादान अथवा चोरी है। वश्यकता से अधिक संग्रह करना या किसी वस्तु का अनुचित उपयोग करना भी एक प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525011
Book TitleSramana 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy