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________________ मे. सागरमल जैन स्थापना भद्रबाहु द्वितीयने की मूझे निराधार प्रतीत होती है। दक्षिण भारत का निग्रन्थ संघ तो मैद्रबाहु प्रथम की परम्परा का प्रतिनिधि है -- चाहे भद्रबाहु प्रथम दक्षिण गये हो या नहीं गये हो किन्तु उनकी परम्परा ईसा पू. तीसरी शती में दक्षिण भारत में पहुंच चुकी थी, इसके अनेक माण भी हैं। भद्रबाहु प्रथम के पश्चात् लगभग द्वितीय शती में एक आर्य भद्र हुए हैं, जो Aथुक्तियों के कर्ता थे और सम्भवतः ये उत्तर भारत के अचेल पक्ष के समर्थक रहे थे उनके नाम से भद्रान्वय प्रचलित हुई जिसका उल्लेख उदयगिरि (विदिशा) में मिलता है। मेरी दृष्टि मूलगण भद्रान्वय, आर्यकुल आदि का सम्बन्ध इसी उत्तर भारत की अचेल धारा से है - जो मागे चलकर यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुई। दक्षिण में पहुंचने पर यह धारा अपने को मूलगण या लसंघ कहती हो। यह आगे चलकर श्री वृक्षमूल गण, पुन्नागवृक्षमूलगण, कनकोफ्लसम्भूतवृक्षमूलगण आदि अनेक गणों में विभक्त हुई फिर भी सबने अपने साथ मूलगण द कायम रखा। जब इन विभिन्न मूल गणों को कोई एक संयुक्त नाम देन का प्रश्न आया तो हे मूलसंघ कहा गया। कई गणों द्वारा परवर्तीकाल में संघ नाम धारण करने अनेक प्रमाण भिलखों में उपलब्ध है। पुनः यापनीय ग्रन्थों के साथ लगा हुआ 'मूल विशेषण - जैसे लाचार, मूलाराधना आदि भी इसी तथ्य का सूचक है कि 'मूलसंघ शब्द का सम्बन्ध पनीयों से रहा है। अतः नोणमंगल की ताम्रपटिकाओं में उल्लेखित मूलसंघ-यापनीय रम्परा का ही पूर्व रूप है उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की यह धारा जब पहले दक्षिण भारत पहुंची तो मूलसंघ के नाम से अभिहित हुई और उसके लगभग 100 वर्ष पश्चात् इसे पनीय नाम मिला। हम यह भी देखते हैं कि उसे यापनीय नाम मिलते ही अभिलेखों से मूलसंघ म लुप्त हो जाता है और लगभग चार सौ पचास वर्षों तक हमें मूलसंघ का कहीं कोई भी लेख उपलब्ध नहीं होता है। नोणमंगल की ई. सन् 425 की ताम्र पट्टिकाओं के पश्चात् नूर के ई. सन् 860 के अभिलेख में पुनः मूलसंघ का उल्लेख देशीयगण के साथ मिलता है। तव्य है कि इस अभिलेख में मूलसंघ के साथ देशीयगण और पुस्तकगच्छ का उल्लेख है त कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख नहीं है। ज्ञातव्य है कि पहले यह लेख ताम्रपट्टिका पर था में 12वीं शती में इसमें कुछ अंश जोड़कर पत्थर पर अंकित करवाया गया इस जुड़े हुए में ही कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख है। इसके दो सौ वर्ष पश्चात् से यापनीयगण और बड़ आदि अन्य गण सभी अपने को मूलसंघीय कहते प्रतीत होते हैं। । इतना निश्चित है कि मूलसंघ के साथ कुन्दकुन्दान्वय सम्बन्ध भी परवर्ती काल में जुड़ा है पि कुन्दकुन्दान्वय का सर्व प्रथम अभिलेखीय उल्लेख ई. सन् 797 और 802 में मिलता है, तु इन दोनों लेखों में पुस्तकगच्छ और मूलसंघ का उल्लेख नहीं है। आश्चर्य है कि त्यिक स्रोतों में तो दसवीं शती के पूर्व मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय का कहीं कोई उल्लेख जनशिलालेखसंग्रह, भाग ३, भूमिका, पृ. २३ । वाडी, भाग २, लेखक्रमांक ७६१ । ली. लेखक्रमांक १२२ एव १२३ (मन्ने के ताम्रपत्र)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525011
Book TitleSramana 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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