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________________ 16 श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १८८२ इस प्रकार हम देखते हैं कि इन तीनों अभिलेखों में से एक अभिलेख में श्वेताम्बर मूलसंघ और दो अभिलेखों में श्वेताम्बर माथुरसंघ का उल्लेख है। वी. ए. स्मिथ ने अपनी कृति 'दि जैन स्तूप एण्ड अदर एण्टीक्यूटीज आफ मथुरा में इनमें से दो लेखयुक्त मूर्तियों को प्रकाशित किया है। साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि फ्यूरर के अनुसार ये दोनों मूर्तियाँ मथुरा के श्वेताम्बर संघ को समर्पित थीं । स्व. प्रो. के. डी. बाजपेयी ने भी 'जैन श्रमण परम्परा' नामक अपने लेख में, जो कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर से प्रकाशित 'अर्हत् वचन' पत्रिका के जनवरी 1992 के अंक में प्रकाशित हुआ है, इनमें से दो अभिलेखों का उल्लेख किया है। इनके अनुसार J 143 क्रम की प्रतिमा के अभिलेख की वाचना इस प्रकार है —— "संवत् 1038 कार्तिक शुक्ल एकादश्यां श्री श्वेताम्बर (माथुर ) संघेन पश्चिम... कार्यां श्री देवनिम्मित प्रतिमा प्रतिष्ठापिता । " --- इसी प्रकार J 145 क्रम की प्रतिमा के अभिलेख की उनकी वाचना निम्नानुसार है - "संवत् 1134 श्री श्वेताम्बर श्री माथुर संघ श्री देवनिर्मित प्रतिमा कारितेति । " -- प्रो. बाजपेयी की J 143 क्रम की प्रतिमा की वाचना फ्यूरर की वाचना से क्वचित् भिन्न है, प्रथम तो उन्होंने संवत् को 1036 के स्थान पर 1038 पढ़ा है दूसरे मूलसंघेन को ( माथुर ) संघेन के रूप में पढ़ा है । यद्यपि उपर्युक्त दोनों वाचनाओं 'श्वेताम्बर' एवं 'माथुरसंघ के सम्बन्ध में वाचना की दृष्टि से किसी प्रकार का कोई मतभेद नहीं है। मूलसंघेन पाठ के सम्बन्ध में थोड़े गम्भीर अध्ययन की अपेक्षा है । सर्वप्रथम हम इसी सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा करेंगे। जब मैने J 143 क्रमांक की मूर्ति के लेख को स्वयं देखा तो यह पाया कि उसमें उत्कीर्ण श्वेताम्बर शब्द बहुत ही स्पष्ट है और अन्य दो प्रतिमाओं में भी श्वेताम्बर शब्द की उपस्थिति होने से उसके वाचन में कोई भ्रान्ति की संभावना नहीं है। 'मूल' शब्द के पश्चात् का संघेन शब्द भी स्पष्ट रूप से पढ़ने में आता है किन्तु मध्य का वह शब्द जिसे फ्यूरर ने 'मूल' और प्रो. बाजपेयी ने 'माथुर' पढ़ा है, स्पष्ट नहीं है । जो अभिलेख की प्रतिलिपि मुझे प्राप्त है और जो स्मिथ के ग्रन्थ में प्रकाशित है उसमें प्रथम 'म' तो स्पष्ट है किन्तु दूसरा अक्षर स्पष्ट नहीं है, उसे 'ल' 'लु' और 'थु' इन तीनों रूपों में पढ़ा जा सकता है। उसे 'मूल' मानने में कठिनाई यह है कि 'म' के साथ 'ऊ की मात्रा' स्पष्ट नहीं है। यदि हम उसे 'माथुर' पढ़ते हैं तो 'म' में आ की मात्रा और र का अभाव पाते हैं । सामान्यतया अभिलेखों में कभी-कभी मात्राओं को उत्कीर्ण करने में असावधानियां हो जाती हैं। यही कारण रहा है कि मात्रा की सम्भावना मानकर जहां फ्यूरर के वाचन के आधार पर लखनऊ म्यूजियम के उपलब्ध रिकार्ड में 'मूल' माना गया है। त्रा के अभाव के कारण इसे 'मूल' पढ़ने में कठिनाई का अनुभव की मात्रा' के अभाव के Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525011
Book TitleSramana 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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