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________________ प्राकृत जैनागम परम्परा में गृहस्थाचार ६७ विशेष । श्रावक के लिए ग्यारह प्रतिमाओं का विधान किया गया है। ये वैराग्य की प्रकर्षता से श्रावक की ग्यारह श्रेणियां हैं। श्रावक अपनी शक्ति को न छिपाता हुआ इन प्रतिमाओं की अनवरत साधना करके उत्तरोत्तर उत्कर्ष को प्राप्त होता है। अन्तिम प्रतिमा में श्रावक का रूप साधु से किंचित् न्यून रहता है। इसलिए अन्तिम प्रतिमा को श्रमणभूत प्रतिमा नाम से भी अभिहित किया गया है।' ये ग्यारह प्रतिमाएं इस प्रकार हैं-१. दार्शनिक, २. व्रतिक, ३. सामयिक, ४. प्रोषधोपवासी, ५. सचित्तविरत, ६. रात्रिभुक्तविरत, ७. ब्रह्मचारी, ८. आरम्भविरत, ९. परिग्रहविरत, १०. अनुमतिविरत और ११. उद्दिष्टविरत । ग्यारहवीं उद्दिष्टविरत प्रतिमा के दो भेद हैं-प्रथम एक वस्त्र रखने वाला। इसे क्षुल्लक कहते हैं। दूसरा कोपीन अर्थात् लंगोटी मात्र के परिग्रह वाला, इसे ऐलक कहा जाता प्रतिमाएँ तपःसाधना की क्रमशः वृद्धि को प्राप्त अवस्थाएँ हैं । दूसरे शब्दों में श्रावक के ये ग्यारह स्थान हैं। प्रतिमा धारण करने वाले श्रावक के व्रत-नियमादि गुण सम्यग्दर्शनादि क्रमशः बढ़ते रहते हैं। अतः उत्तर-उत्तर प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं के गुण स्वतः समाविष्ट हो जाते हैं। ग्यारहवीं प्रतिमा के बाद श्रावक स्वशक्ति अनुसार मुनिधर्म की दीक्षा लेता है अथवा सल्लेखना या समाधिमरण का वरण करता है। इसे मारणांतिक सल्लेखना कहते हैं जो प्रीतिपूर्वक, शान्तिपूर्वक सेवन की जाती है।" १. द्रष्टव्य, अध्याय ४, परि.। भिक्ष प्रतिमा । २. दसण-वय-सामाइय पोसह सच्चित्त राइभत्ते य । बंभारंभपरिग्गह अणुमण उठ्ठि देसविरदे ।। बा० अणु० ६९ उवासग० ११६१-६४, चा० पा० २२, वसु० श्रा० ४, सा० ध० ३।२-३' ३. एसारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविओ। वत्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ ॥ वसु० श्रा० ३०१, गुण० श्रा० १८४, सा० ध० ७।३८-३९ ४. चा० सा० ३।४, सा० ध० ३।५ ५. मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता । त० सू० ७१२२, सा० ध० ७.५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525010
Book TitleSramana 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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