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________________ प्राकृत जैनागम परम्परा में गृहस्थाचार ६१ दिग्वत में प्रमाण किये हुए विशाल देश में काल के विभाग से प्रतिदिन त्याग करना देशावकाशिक व्रत है। देशावकाशिक व्रत में क्षेत्र की मर्यादा अमुक घर, गली अथवा कटक-छावनी, ग्राम-खेत, नदी, वन या योजन तक की जाती है। यह मर्यादा एक वर्ष, छह माह, चार माह, दो माह, एक पक्ष और नक्षत्र तक की भी हो सकती है। इस प्रकार देशव्रती श्रावक लोभ और काम को घटाने के लिए तथा पापनिवृत्ति के लिए वर्ष आदि की अथवा प्रतिदिन की मर्यादा करता है। पहले दिग्व्रत में किये हुए दिशाओं के प्रमाण को तथा भोगोपभोग परिमाणव्रत में किए गये इन्द्रिय के विषयों के परिमाण को और भी कम करता है। यही देशवत अपनी मर्यादा के बाहर स्थूल-सूक्ष्म रूप पापों का त्याग होने पर महाव्रत के सदृश हो जाता है । आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये पाँच देशव्रत के अतिचार या दोष हैं । देशवत के सम्यक् पालन के लिए इन दोषों का जानना भी आवश्यक है जिससे देशव्रत का निर्दोष और निरतिचार पालन किया जा सके। १. देशावकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य । प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ।। गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च । देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः । संवत्सरमृतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्ष च । देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधि प्राज्ञाः ।। र० क० श्रा० ९२-९४; सा० ध० ४।२५ २. पुव-पमाण-कदाणं सव्वदिसीणं पुणो वि संवरणं । इंदियविसयाण तहापुणो वि जो कुणदि संवरणं ॥ वासादिकयपमाणं दिणे-दिणे लोह-काम-समणह्र ।। का० अ० ३६७-३६८; वसु० श्रा० २१५, गुण० श्रा० १४१ ३. पूर्ववद्बहिर्महाव्रतत्वं व्यवस्थाप्यम् । सा० सि० ७।२१; त० वा० ७।२१।२०; २० क० श्रा० ९५ ४. आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः । त० सू० ७१३१; र० क० श्रा० ९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525010
Book TitleSramana 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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