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________________ ५४ श्रमण, अप्रैल-जून १९९२ विरक्त चित्त और अणुव्रती होता है । वह श्रद्धापूर्वक अपने श्रमण गुरुजनों से निर्ग्रन्थ धर्म का प्रवचन सुनता है, इसलिए उसे श्रावक कहते हैं।' व्रतधारी को उपासक, अणुव्रती, देशविरत, सागार, देशचारित्रिन्, श्रमणोपासक आदि शब्दों से अभिहित किया गया है। ये सभी शब्द पर्यायवाची होते हुए भी अपना स्वतन्त्र सार्थक्य रखते हैं। श्रावक, श्रमणवर्ग अथवा श्रामण्य की उपासना करता है, इसलिए उसे श्रमणोपासक या उपासक भी कहा जाता है, श्रावक अणुव्रती होता है। यह व्रतों का एकदेश पालन करता है, पूर्ण रूप से नहीं । इसलिए इसके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं। श्रावक के आचार की दार्शनिक व्याख्या करते हुए कहा गया है कि चारित्रमोह कर्म के भेद रूप अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की प्राप्ति के समय आत्मविशुद्धि का प्रकर्ष होता है। उस विशुद्धि के कारण ही व्यक्ति श्रावक का आचार ग्रहण कर पाता है, अन्यथा नहीं। इस विशुद्धि के बिना व्यक्ति की सम्यक् आधार में प्रवृत्ति ही नहीं होती। वस्तुतः व्रत, अणु या महत् नहीं होते, आधार भेद से वे इस विशेषण को प्राप्त होते हैं। यह सागार या श्रावक पांच अणुव्रत, चार शिक्षाव्रत और तीन गुणवत, इस तरह बारह प्रकार का संयमाचरण चारित्र धारण करता है। जीवन के अन्त में सल्लेखना पूर्वक मृत्यु का वरण करता है, आवाह्न करता है अथवा ग्यारह प्रतिमाएँ धारण करता है। ये प्रतिमाएं वैराग्य की प्रकर्षता से उत्तरोत्तर श्रेणियाँ हैं। अपनी शक्ति को न छिपाता हुआ श्रावक क्रमशः ऊपर उठता जाता है। अन्तिम श्रेणी में वह श्रमण से किंचित् न्यून रहता है । १. शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावकः । सा० ध०, टी० १.१५ २. चारित्रमोहकर्म विकल्पाप्रत्याख्यानावरणक्षयोपशम निमित्तपरिणामप्राप्ति काले विशुद्धिप्रकर्षयोगात् श्रावको । स. सि० ९।४५ ३. पंचेवाणुव्वयाई गुणव्वयाई हवंति तह तिपिण । सिक्खाक्य चत्वारि य संजमवरणं व सायारं ॥ वा० पा० २२ उपासग० १ २३.४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525010
Book TitleSramana 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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