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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२
(५) दर्शनमोहक्षपक
(५) दर्शनमोहक्षपक (६) कसाय उपशमक (ज्ञातव्य है कि (६) उपशमक
आचारांग नियुक्ति में 'कसाय'
शब्द नहीं है) (७) उपशान्त
(७) उपशान्त मोह (८) क्षपक
(८) क्षपक (९) क्षीण मोह
(९) क्षीण मोह (१०) जिन
(१०) जिन इस प्रकार आचारांग नियुक्ति की एवं षट्खण्डागम चूलिका में उद्धृत उपयुक्त गाथाओं में वर्णित दस अवस्थाओं की तत्त्वार्थसूत्र से न केवल भावगत अपितु शब्दगत भी समानता है।
षट्खण्डागम में इन दोनों गाथाओं की व्याख्या के रूप में जो सूत्र बने हैं उनमें शब्द और भाव-स्पष्टता की दृष्टि से भी एक विकास देखा जाता है । साथ ही जहाँ उपरोक्त गाथाओं में दस अवस्थाओं का चित्रण है वहाँ षट्खण्डागम के व्याख्या सूत्रों में ११ अवस्थाओं का चित्रण है, जो स्वतः एक विकास का सूचक है उसमें वर्णित ११ अवस्थाएं निम्न हैं --- (१) दर्शनमोह उपशमक (२) संयतासंयत (३) अधः प्रवृत्त (यथाप्रवृत्त) संयत, 'अधापवत्त' का संस्कृत या हिन्दी रूपान्तर यथाप्रवृत्त है, अधःप्रवृत्त नहीं (४) अनन्तानुबंधी विसंयोजक, (५) दर्शनमोहक्षपक, (६) कषाय उपशमक, १७) उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ (८) कषाय क्षपक, (९) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ (१०) अधः प्रवृत्त (यथाप्रवृत) केवली संयत, (११) योगनिरोधकेवली संयत।
इनकी पारस्परिक तुलना में हम पाते हैं आचारांग नियुक्ति से तत्त्वार्थ की यह विशेषता है कि उसमें 'अणंतकम्मंसे' शब्द के स्थान पर 'अनन्त वियोजक' शब्द है जो अधिक स्पष्ट है । पुनः जहाँ आचारांग नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में छठेक्रम पर मात्र उपशमक शब्द है, वहाँ षटखण्डागम में मूलगाथा में कषाय उपशमक शब्द है जो अधिक. स्पष्ट है । मूल सूत्र इस प्रकार हैं
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