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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२
६. (कषाय शमक) उपशान्त ७. क्षपक ८-१०. क्षीण, आदि-त्रिक अर्थात् क्षीणमोह, सयोगी केवली और अयोगी केवली।
इन गाथाओं की विशेषता यह है कि इनके अन्त में सम्यक्त्व आदि एकादश गुणश्रेणियों का उल्लेख है। ये एकादश गुणश्रेणियाँ केवली के सयोगी और अयोगी ऐसे दो विभाग करने पर ही बनती हैं। संभवतः पांचवीं-छठी शताब्दी के पश्चात् गुण स्थान सिद्धान्त में सयोगी और अयोगी अवधारणा के आने पर जिन नामक दसवीं अवस्था के विभाजन से गुण श्रेणी की संख्या १० से बढ़कर ११ हो गई और वह दोनों ही परम्पराओं में संरक्षित होती रही।
श्वेताम्बर परम्परा में इन ११ गुणश्रेणियों का हमें अन्तिम उल्लेख देवेन्द्रसूरि विरचित अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में शतक नामक पञ्चम कर्म ग्रन्थ में ८२ वी गाथा में प्राप्त होता है जो कि निम्न रूप में है--
सम्मदरससव्व विरई उ अणविसंजोयदंसखवगे य ।
मोहसमसंतखवगे, खीण सजोगियर गुणसेढी ।। प्रस्तुत गाथा की विशेषता यह है कि इसमें दो गाथाओं के विवरण को संक्षिप्त सांकेतिक शब्दों के आधार पर एक ही गाथा में समाहित कर दिया गया है जैसे सम्यग् दृष्टि के लिए सम्म, देशव्रती के लिए दर, अनन्त-विसंयोजक के लिए अणविसंजोय, दर्शन मोहक्षपक के लिए दंसखवगे आदि इस प्रकार के संक्षिप्त शब्दों का प्रयोग हुआ है इसी प्रकार उपशम के लिए केवल शम, उपशांत के लिए केवल संत
और क्षीणमोह के लिए केवल खीण शब्द का प्रयोग किया गया है किन्तु जिन के स्थान पर सजोगी और इतर ऐसी दो अवस्थाओं का संकेत किया गया है।
देवेन्द्रसूरि की विशेषता यह है कि उन्होंने इस गाथा की स्वोपज्ञ टीका में इन संक्षिप्त शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने के साथ-साथ इन एकादश गुणश्रेणियों का न केवल स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है अपितु इन गुणश्रेणियों की गुण स्थान की अवधारणा से निकटता भी सूचित की है। साथ ही इसके भावार्थ को भी टीका में स्पष्ट किया
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