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________________ पर्यावरण एवं अहिंसा डा० डी० आर० भण्डारो भारतीय ऋषियों, मनीषियों एवं चिंतकों ने 'जीवन' को सर्वोच्च सम्मान दिया है । उनके अनुसार जीवन प्रत्येक रूप में आराध्य है । उन्होंने प्राकृतिक परिवेश को पूज्य बना कर इसकी न केवल महत्ता को स्वीकार किया है अपितु उसे उच्च स्थान भी दिया है । जैन दर्शन तो अग्नि, वायु, पृथ्वी इत्यादि को भी सजीव मानता है । जीवन किसी भी रूप में क्यों न हो वह आदरणीय है, स्तुत्य है । भारतीय दर्शन में 'जीवन' की गरिमा और उत्थान के मूल में अहिंसा का ही तत्त्व है । भगवान महावीर तथा अन्य तीर्थंकरों ने जैन दर्शन के प्रमुख तत्त्व के रूप में अहिंसा को ही निरूपित किया है । आचारांग सूत्र में अहिंसा, सत्य और अदत्तादान का उल्लेख मिलता है । पंच महाव्रतों में अहिंसा प्रथम व्रत है। पतंजलि ने योगसूत्र में प्रथम स्थान अहिंसा का ही माना है । बौद्धधर्म में भी अहिंसा प्रथम है । है क्योंकि यह जो हाड़प्राणी ही है, हाँ एक मानव एक प्राणी है और अन्य प्राणियों की भाँति वह भी इस भू-मण्डल पर विकसित हुआ है । विज्ञान ने प्रमाण एवं तर्कों के आधार पर यह सिद्ध कर दिखाया है कि मानव की यात्रा जीवन के उन्नयन की यात्रा है । विज्ञान का यह तथ्य अधूरा मांस का पुतला है वह निश्चय ही आज भी उन्नत प्राणी है, परन्तु इसके भीतर जो व्यक्तित्व छिपा है वह मात्र प्राणी नहीं है । यही व्यक्तित्व उसे अन्य प्राणियों से भिन्न करता है । मनुष्य का व्यक्तित्व मात्र उन्नत मस्तिष्क नहीं है बल्कि उसके जीवन में अनुप्राणित वह दर्शन है जो उसे शरीर रूपी प्राणी से ऊपर उठाता है । हाड़-मांस के दृष्टिकोण से तो वह क्षीण हुआ है, दुर्बल हुआ है, तथा उसकी संवेदनशीलता और सामर्थ्य भी कम हुई है । हमने जो साधन विकसित किए हैं वे भी हमारे विस्तार की ही एक कड़ी है * विभागाध्यक्ष, दर्शन विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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