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श्रमण ;
जनवरी-मार्च, १९९२
चन्द्रकवेध्यक प्रकीर्णक की १७५ गाथाओं में से ६ गाथाएँ - उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा तथा अनुयोगद्वार आदि आगमों में, ११ गाथाएँ -- आवश्यक नियुक्ति, उत्तराध्ययन नियुक्ति, दशनैकालिक नियुक्ति तथा ओघनियुक्ति आदि में, ३४ गाथाएँ - मरणविभक्ति, भक्तपरिज्ञा, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, तित्थोगाली, आराधनापताका तथा गच्छाचार आदि प्रकीर्णकों में एवं ५ गाथाएँ विशेषावश्यक भाष्य में मिलती हैं । साथ ही दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के मान्य ग्रन्थों - भगवती आराधना, मूलाचार, नियमसार, सुत्तपाहुड आदि में लगभग १६ गाथाएँ इस प्रकीर्णक की मिलती हैं । ये सभी ग्रन्थ पाँचवीं - छठीं शताब्दी के मध्य के हैं, इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि चन्द्रवेध्यक छठीं शताब्दी के पूर्व की रचना है ।
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विषय वस्तु - ' चन्द्रकवेध्यक' शीर्षक से ही यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में प्रतिपादित आचार के जो नियम आदि बताए गए हैं, उनका पालन कर पाना चन्द्रकवेध ( राधा - वेध) के समान ही मुश्किल है । इस ग्रन्थ में सात द्वारों (अध्यायों) में सात गुणों का वर्णन इस प्रकार है१. विनय
गुण
'विनय गुण' नामक प्रथम द्वार में यह वर्णन प्राप्त होता है कि किसी शिष्य की महानता उसके द्वारा अर्जित व्यापक ज्ञान पर निर्भर नहीं है वरन् उसकी विनयशीलता पर आधारित है । गुरुजनों का तिरस्कार करने वाले विनय रहित शिष्य के लिए यहाँ तक कहा गया है कि वह लोक में कीर्ति और यश प्राप्त नहीं करता है, विनय पूर्वक विद्या ग्रहण करने वाले शिष्य के विषय में कहा गया है कि वह सर्वत्र विश्वास और कीर्ति प्राप्त करता है ।
विद्या और गुरु का तिरस्कार करने वाले तथा मिथ्यात्व से युक्त होकर लोकैषणा में फँसे रहने वाले व्यक्तियों को ऋषिघातक तक कहा गया है । विद्या इस लोक में हीं नहीं वरन् परलोक में भी सुख प्रदान करने वाली बतलायी गयी है ।
विद्या प्रदान करने वाले आचार्य और शिष्य के विषय में कहा गया है कि जैसे समस्त विद्याओं के प्रदाता गुरु कठिनाई से मिलते हैं। वैसे ही चारों कषायों तथा खेद से रहित सरल चित्त वाले शिष्य भी मुश्किल से मिलते हैं ।
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