________________
चन्द्रकवेध्यक (प्रकीर्णक) एक आलोचनात्मक परिचय
-सुरेश सिसोदिया वर्तमान में आगमों के अंग, उपांग, छेदसूत्र, मूलसूत्र, चूलिकासूत्र तथा प्रकीर्णक विभाग किये जाते हैं। यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ १३वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है । सामान्यतया प्रकीर्णकों का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण, प्रकीर्णकों की रचना करते थे । परम्परागत मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण, एक-एक प्रकीर्णक की रचना करता था। समवायांगसूत्र में "चोरासीइं पण्णग सहस्साई पण्णत्ता" कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों की ओर संकेत किया गया है। आज यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या निश्चित नहीं है फिर भी आज ४५ आगमों में दस प्रकीर्णक माने जाते हैं । ये दस प्रकीर्णक निम्नलिखित हैं
(१) चतुःशरण, (२) आतुरप्रत्याख्यान, (३) भक्तपरिज्ञा, (४) संस्तारक, (५) तंदुलवैचारिक, (६) चन्द्रकवेध्यक, (७) देवेन्द्रस्तव, (4) गणिविद्या, (९) महाप्रत्याख्यान और (१०) वीरस्तव ।
इन दस प्रकीर्णकों के नामों में भी भिन्नता देखी जा सकती है। कुछ ग्रन्थों में चन्द्रकवेध्यक और वीरस्तव के स्थान पर मरणसमाधि
आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान
पद्मिनी मार्ग, उदयपुर (राज.) १. विधिमार्गप्रपा-सम्पा० जिनविजय, पृष्ठ ' ५ २. समवायांगसूत्र-सम्पा० मुनि मधुकर, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति,
व्यावर; प्रथम संस्करण १९८२, ८४ वाँ समवाय, पृ० १४३ । ३. पइण्ण यसुताई-सम्पा० मुनि पुण्यविजय, प्रका० श्री महावीर जैन विद्या
लय, बम्बई; भाग-१, प्रथम संस्करण १९८४, प्रस्तावना पृ० २० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org