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________________ गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास इस प्रकार कसायपाहुड में सम्यक् - मिथ्या - दृष्टि की अवधारणा अधिक पाते हैं । इसी क्रम में आगे मिथ्या दृष्टि, सस्वादन और अयोगी केवली की अवधारणायें जुड़ी होंगी और उपशम एवं क्षपक श्रेणी के विचार के साथ गुणस्थान का एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त सामने आया होगा । इस तुलनात्मक विवरण से हम पाते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के समान ही कसायपाहुडसुत्त में न तो गुणस्थान शब्द ही है और न गुणस्थान सम्बन्धी १४ अवस्थाओं का सुव्यवस्थित विवरण ही है; किन्तु दोनों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द पाये जाते हैं । सायपाहुड में गुणस्थान से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द हैं - मिथ्यादृष्टि, सम्यक्मथ्यादृष्टि / मिश्र, अविरत / सम्यकदृष्टि, देशविरत / विरताविरत, संयमासंयम, विरत / संयत, उपशांतकषाय एवं क्षीणमोह तुलना की दृष्टि से तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यक्मिथ्यादृष्टि की अवधारणा अनुपस्थित है, जबकि कसायपाहुडसुत्त में इस पर विस्तृत चर्चा उपलब्ध है । किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की 'अनन्तवियोजक' की अवधारणा कसायपाहुड में उपलब्ध नहीं है - उसके स्थान पर उसमें दर्शनमोह उपशमक की अवधारणा पायी जाती है । तत्त्वार्थसूत्र की उपशमक, १. कसायपाहुड सुत्त सं० पं० हीरालाल जैन - वीरशासन, संघ कलकत्ता १९५५ देखें - सम्मत्त देसविरयी संजम उवसामणा च खवणा च दंसण चरित्त मोहे अद्धापरिमाणणिद्द सो || १४ || सम्मत्ते मिच्छत्ते य मिस्सगे चेव बोद्धव्वा ||८२ ॥ विरदीय अविरदीए विरदाविरदे तहा अणगारे ||८३ ॥ दंसणमोहस्स उवसामगस्स परिणामोकेरिसोभवे ॥ ९१ ॥ दंसण मोहक्खवणा पट्ठवगो कम्मभूमि जादो तु ।। ११० ।। सुमे च सम्पराए बादररागे च बोद्धव्वा ॥ १२१ ॥ उवसामणा खएण दु पडिवदि दो होइ सुहुम रागमि ॥ १२२ ॥ - aणे कसासु य सेसराण के व होति विचारा | २३२|| संकामनाणयोवट्टण किही खवणाए खीण मोहंते । खवणाय आणुपुव्वी बोद्धव्वा मोहणीयस्य ॥ २३३ ॥ Jain Education International ३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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