SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ११ ] जैनाचार्यों ने विभिन्न वर्ण के लोगों को किन-किन साधनों से धनार्जन करना चाहिए, इसका भी निर्देश किया है । ब्राह्मणों को मुख ( विद्या ) से, क्षत्रियों को असि ( रक्षण) से, वणिकों को वाणिज्य से और कर्मशील व्यक्तियों को शिल्पादि कर्म से धनार्जन करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं की साधना में उनकी लक्ष्मी का निवास है ।' यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ और काम बाधक हैं, वे जैनदृष्टि के अनुसार अनावरणीय एवं हेय हैं । लेकिन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थं एकान्त रूप से हेय हैं । यदि वे एकान्त रूप से हेय होते तो आदि तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव स्त्रियों की ६४ और पुरुषों की ७२ कलाओं का विधान कैसे करते ? क्योंकि उनमें अधिकांश कलाएँ. अर्थ और काम पुरुषार्थ से सम्बन्धित हैं । न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक मर्यादानुकूल काम का जैन विचारणा में समुचित स्थान है । जैन विचारकों ने जिसके त्याग पर बल दिया है वह इन्द्रिय-विषयों का भोग नहीं, भोगों के प्रति आसक्ति या राग-द्वेष की वृत्ति है । जैन मान्यता के अनुसार कर्म विपाक से उपलब्ध भोगों से बचा नहीं जा सकता । इन्द्रियों के सम्मुख उनके विषय उपस्थित होने पर उनके आस्वाद से भी बचना सम्भव नहीं है, जो सम्भव है वह यह कि उनमें राग-द्वेष की वृत्ति न रखी जाये । इतना ही नहीं, जैनाचार्यों ने जीवन के वासनात्मक एवं सौन्दर्या - त्मक पक्ष को धर्मोन्मुखी बनाने तथा उनके पारस्परिक विरोध को समाप्त करने का भी प्रयास किया है । उनके अनुसार मोक्षाभिमुख परस्पर अविरोध में रहे हुए सभी पुरुषार्थ आचरणीय हैं। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि गृहस्थ उपासक धर्मपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ का इस प्रकार आचरण करे कि कोई किसी का बाधक न हो । भद्रबाहु ( पाँचवी शती) ने तो आचार्य हेमचन्द्र ( ११वीं शताब्दी ) के पूर्व ही यह उद्घोषणा कर दी थी कि जैन परम्परा में तो पुरुषार्थचतुष्टय अविरोध रहते हैं । आचार्य बड़े ही स्पष्ट एवं मार्मिक शब्दों में लिखते हैं कि धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई विचारक परस्पर विरोधी मानते हों, किन्तु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने के कारण परस्पर असपत्न ( अविरोधी ) हैं । अपनी-अपनी १. प्राकृत सूक्ति- सरोज, ११।७. २. देखिए - कल्पसूत्र, ३. योगशास्त्र, ११५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525009
Book TitleSramana 1992 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy