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श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१
७२ हरिवंशपुराण में हुए वर्णन से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि भगवान् महावीर के शासन में प्रत्येक व्यक्ति को धर्मसेवन करने का समानाधिकार प्राप्त था। यहाँ नर-नारी, वेश-भूषा या शूदाशूद्र को लेकर धर्म के सेवन में कोई अन्तर नहीं आता। हरिवंश पुराण' की कथानुसार-श्री वसुदेव जी अपनी प्रियतमा मदनवेगा के साथ सिद्धकुट चैत्यालय की वन्दना करने गये, मन्दिर में कई चित्र-विचित्र लोगों को बैठा देखकर कुमार ने मदनवेगा से उनकी जाति के विषय में पूछा. लब मदनवेगा ने कहा-मैं इनमें से इन मातंग जाति के विद्याधरों का वर्णन करती हूँ-नीलमेघ के समान श्याम नीलीमाला धारण किये मातंगस्तम्भ के सहारे बैठे हुए ये मातंग जाति के विद्याधर हैं । मुर्दो की हड्डियों के आभूषणों से युक्त, राख के लपेटने से मटमैले श्मशान स्तम्भ के सहारे बैठे हुए वे श्मशान जाति के विद्याधर हैं। वैडूर्य मणि के समान नीले वस्त्रों को धारण किए हुए पाण्डुर स्तम्भ के सहारे बैठे हुए पाण्डुक जाति के विद्याधर हैं। काले-काले मृग चर्मों को ओढ़े काले चमड़े के वस्त्र और मालाओं को धारण किये हुए काले स्तम्भ का आश्रय लेकर बैठे हुए ये कालश्वपा जाति के विद्याधर हैं । यह सब यही सूचित करता है कि कोई भी जैनधर्म का श्रद्धालु जिन मन्दिर में जाकर बैठ सकता था और वहाँ धर्म श्रवण और धर्माराधन कर सकता था।
यद्यपि हम यह तो नहीं कह सकते कि जैन धर्म में व्यावहारिक रूप में जातीयता-भावना बिल्कुल नहीं थी, किन्तु इतना अवश्य कहेंगे कि जो थोड़े बहुत जातीय भावना के सन्दर्भ आगमों में आये हैं वे अन्य समकालीन परम्पराओं के प्रभाव के कारण है। अतः यह निर्विवाद सत्य है कि सामाजिक उत्थान एवं जातिगत विषमता को दूर करने का जितना प्रयास जैन धर्म परम्परा में हुआ है. यह अन्यत्र दुर्लभ है। १. हरिवंश पुराग सर्ग २६, श्लोक १४ से २२ तक।
शोध सहायक पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, आई० टी० आई० रोड, वाराणसी-५
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