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ऋग्वेद में अहिंसा के सन्दर्भ
जा रही है।' षष्ठ मण्डल में सोम से दुष्ट व्यवहार करने वाले भेड़िए के समान राक्षसों का वध करने की प्रार्थना की गयी है जिसे समाज में अवांछित तत्त्व के रूप में जाना जाता है। अतः समाज की सुख शान्ति हेतु ऐसे असामाजिक तत्त्वों का विनाश अपरिहार्य और अहिंसा सिद्धान्त की स्थापना के लिए आवश्यक है। आत्मकल्याणार्थ अहिंसा को साधना
ऋग्वेद के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वैदिक अहिंसा आत्मकल्याणपरक है तथा उसमें आत्म-रक्षा की भावना प्रमुख रूप से विद्यमान है। अहिंसा की इस अवधारणा के पीछे वैदिक ऋषियों का यही मन्तव्य रहा होगा कि, जो व्यक्ति आत्मरक्षा करने में समर्थ नहीं है वह पर रक्षा कैसे कर सकता है। अतः ऋग्वेद में स्थल-स्थल पर वैदिक ऋषि आत्मकल्याण एवं आत्मरक्षार्थ विभिन्न देवताओं की स्तुति करते थे; किन्तु इससे यह कदापि नहीं व्यंजित होता है कि वैदिक ऋषि अति संकीर्ण विचारधारा के थे। यह कहा जा सकता है कि उनकी अहिंसा सिद्धान्त में आत्मार्थ से परमार्थ की ओर उन्मुख होने की भावना प्रमुख थी। इसीलिए हिंसकों से अपने जीवन की रक्षा करने की प्रार्थना देवी देवताओं से की गई है । उदाहरण के लिए अग्नि से प्रार्थना की गयी है कि जो हमें मारने की इच्छा करता है उन शत्रुओं से तथा राक्षस एवं हिंसकों से हमारी रक्षा करो --
"पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धुर्तेररावणः । पाहि रीषत उत व जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य ॥" इस मन्त्र में सायण ने "धूर्तेः" का "हिंसकात्" तथा "रक्षसः" का 'वाधकाद्राक्षसादेः" अर्थ लिया है। इसी तरह ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल में वरुण से प्राणरक्षा की प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हे वरुण ! हमें हननसाधनभूत आयुधों से मत मारो तथा हमारे जीवन की रक्षा के लिए हिंसकों से हमें पृथक् करो, जो बन्धु अथवा मित्र मुझ भयभीत को डराने वाले शब्द कहें या कोई स्तेन या भेड़िया हिंसा करने की
१. ऋग्वेद-१०१८७।१३
२. वही १।३६।१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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