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________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ ३८ चतुविध कर्म हैं -- नित्य, नैमित्तिक, काम्य एवं निषिद्ध कर्म । कर्म चलता है - यह अनुभूति और चलनात्मक प्रत्यक्ष एक ही तरह का होता है । अतः मीमांसा - मत में वैशेषिकसम्मत पाँच कर्मभेदों का एक ही प्रकार में समावेश हो जाता है । प्रभाकर - सिद्धान्तानुसार कर्म प्रत्यक्ष न होकर संयोगविभागादि से अनुमेय है । मीमांसकों का कहना है कि निष्काम भाव से धर्म या कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए क्योंकि इस संसार में धर्म करने वाले को अवश्य फलप्राप्ति होती है । इस लोक में कृतकर्म से एक अदृष्ट शक्ति की उत्पत्ति होती है । यही अपूर्व है । यह कर्म के फलभोग को समयानुकूल फलित करने वाली शक्ति है । पापपुण्य दुःखसुखदायी होते हैं । वेदविहित कर्मों में भिन्नभिन्न धात्वर्थों, संख्या, देश, निमित्त, फल, प्रकरण, द्रव्य, देवता, प्रधान, अप्रधान ( गौण, सहायक) आदि कारणों से कर्मभेद हो जाता है । वैसे, मुख्य रूप से पुण्य-पाप दो कर्म ही बन्धन के कारण माने गए हैं । पुनजन्म एवं भवबंध के कारण हैं- आत्मज्ञान, निष्काम धर्माचरण, पापकर्म में विरति और पूर्वजन्मों के संचित संस्कारों के नाश का अभाव । कुमारिल भट्ट ने भोगायतन (शरीर ), भोग साधन ( इन्द्रियाँ ) और भोग्य विषय ( रूप, रस, गन्धादि ) रूप त्रिविध बन्धनों को जीवों के भवबंध का कारण बताया है । संसारी आत्मा में ज्ञान, सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्माधर्म और संस्कार रहते हैं, कर्म करने से भावी जन्मों में देहादि, धर्माधर्म, सुख-दुःखादि उत्पन्न होते हैं । धर्माधर्म से जीव का देहेन्द्रियादि से सम्बन्ध होता है और जीव अनेक योनियों में घूमता रहता है । अद्वैत वेदान्त की दृष्टि में अनादि अविद्यावश भ्रम हो जाने से आत्मा का स्वयं को स्थूल या सूक्ष्म देह मान लेना ही बंधन है । अविद्या से काम एवं काम से कर्मोत्पत्ति होती है । 'काम' विषय के प्रति मन में होने वाला रागयुक्त भाव है । काम की बाहरी प्रतिक्रिया कर्म के रूप में होती है। कर्म का अभिप्राय राग-द्वेष के विषयरूप वस्तु की प्राप्तिअप्राप्ति के लिए की गयी क्रिया से है । इच्छा, रुचि या काम से प्रेरित १. ब्रह्मसूत्र २।१।५ पर शाङ्करभाष्य, शास्त्रदीपिका एवं प्रकरणपञ्चिका में अपूर्वविषयक मत 2. Indian Philosophy, Radhakrishnan Vol. II P. 623 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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