SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ ३६ रूप में होता है वे विज्ञप्तिकर्म हैं। अभिधर्मकोश (४/१७) का अभिमत है कि अविज्ञप्ति कर्म अदृष्ट रूप में रहने वाले और कालान्तर में फलित होने वाले होते हैं। आत्मा को क्षणिक विज्ञान प्रवाह रूप मानते हुए कर्मवाद, बन्ध एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्तों की स्वीकृति बौद्ध दर्शन की विशेषता है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार “अदष्ट" पाप-पुण्य या शुभाशुभ कर्मों का समूह है जो समयानुकूल फल देता है। यही बन्ध है क्योंकि प्रत्येक जन्म में कर्म करने से वर्तमान या भविष्य-जन्मों में फलभोग का चक्र चलता रहता है । इनके विचार में प्रलयावस्था में सब जीवों के मनस, पूर्वजन्मों के संस्कार और धर्माधर्म अदृष्ट रूप में रहते हैं जो ईश्वर में सिसृक्षा होने पर कार्यरूपेण परिणत होते हैं । इन्होंने मानसिक-वाचिककायिक, त्रिविध कर्मों को प्रयत्नजन्य स्वीकार किया है। न्यायमत में स्वीकृत पञ्चविध कर्म ( उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण एवं गमन ) वैशेषिकों को भी मान्य हैं । साक्षात् या परम्परया प्रयत्नजन्य कर्म "सत्प्रत्यय' एवं प्रयत्नरहित "असत्प्रत्यय" कर्म हैं। प्रयत्नरहित होने से पृथिव्यादि महाभूतों के कर्म "अप्रत्यय कर्म" होते हैं । रागद्वेषादिमूलक प्रवृत्ति से प्रेरित होकर जीव शुभाशुभ कर्म करता है जिसके परिणामस्वरूप सुखदुःखादि भोगने पड़ते हैं। योगाचार्यों ( योगसूत्र ४७ व्यासभाष्यसहित ) ने योगी एवं अयोगी के भेद से कर्म विभाजन किया है। पुण्य या शुभ कर्म शुक्ल और पाप या अशुभ कर्म कृष्ण कहलाते हैं । योगियों के कर्म अशुक्ल-अकृष्ण ( न. पुण्य न पाप ) होते हैं अतः बन्धजनक नहीं होते। अयोगी जीवों के कर्म तीन तरह के होते हैं - शुक्ल, कृष्ण एवं शुक्लकृष्ण ( शुभाशुभमिश्रित )। अयोगियों का कर्माशय तीव्र संवेगादि से किए कर्मों के कारण वर्तमान एवं भविष्य जन्मों में शुभाशुभ जाति-आयु-भोग रूप फलों को देता जाता है, जन्म जन्मान्तरों में किए प्रधान कर्म के अनुकूल 1. Sad Darsana Samuccaya, Notes of Murthy, quoted P. 15 २. न्यायसूत्र १।१।१९ पर वात्स्यायन भाष्य ३. न्यायकारिकावली प्रत्यक्ष खण्ड, का० ६, वैशेषिक सूत्र १।१।१७, ४. प्रशस्तपादभाष्य बुद्धि निरूपण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy