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________________ श्रमण, अप्रैल-जून, १९९१ ३४ अनुसार प्राणी संसार में निरन्तर कुछ न कुछ काम करता रहता है। अतः पूर्वकृत कर्मफलों का भोग करते हुए जीव भावी जीवन के लिए दैहिक सुखदुःखादि देने वाले कर्मों का अनजाने में उपार्जन भी करता जाता है । बन्धन एवं कर्म की कार्यकारण रूप यह परम्परा अनादिकालीन है । वेदों में कर्म सिद्धान्त बीजरूपेण प्राप्त होता है । यथार्थतः कर्मसिद्धान्त की उत्पत्ति उपनिषत्काल में हुई थी और वेदमूलक दर्शनों की तरह जैनों एवं बौद्धों ने भी इस सिद्धान्त को वहीं से ग्रहण किया है । वेदों में प्राप्त होने वाले कर्म यज्ञ के रूप में हैं और निश्चित रूप से फलित होते हैं। ऋग्वेद ( ७।८६।६ ) के अनुसार पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों के कारण लोग पापकर्म में प्रवृत्त होते हैं। ऋत् कर्मफल की व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने वाला तत्त्व है । उपनिषदों में कर्मगति का देवयान और पितृयान के रूप में उल्लेख है। शुभाशुभ कर्म शुभाशुभ जन्म के कारण होते हैं । कर्म वासना, संस्कार, अदृष्ट या अपूर्व शक्ति के रूप में संसारी जीव के साथ रहते हैं एवं कर्मफल देते हैं । गीता ( २।४७) में आसक्तिमूलक कर्म को ही बन्ध का कारण कहा गया है । इसलिए जीवन्मुक्त की चेष्टायें बन्धजनक नहीं मानी जाती। कर्मानुसार जीवों की परा एवं अपरा ( गीता ८।२६) दो गतियाँ होती हैं । पुण्यकर्मा पुनः जन्म नहीं लेते अपितु उनकी “परागति' होती है । वे देवयान मार्ग से सूर्यरश्मि के सहारे सदा के लिए ऊपर चले जाते हैं। शुभाशुभ मिश्रित कर्म करने वाले पितृयान मार्ग से चन्द्रलोक जाते हैं। कुछ समय वहाँ रहकर फलभोग हेतु संसार में लौट आते हैं। यही "अपरा गति" है। कर्म एवं लोकवश इस मार्ग के अनेक भेद होते हैं । ___ जैन दर्शन में कर्म और जीव के संयोग की एक विशेष प्रक्रिया बतायी गयी है। कर्म सक्ष्म पुद्गलों के रूप में होते हैं । कर्मों का जीव की ओर जाना "आस्रव" है एवं कर्मपुद्गलों और जीव का एक-दूसरे १. भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय पृ० २३ २.. मैकडॉनल के अनुसार इस शब्द का प्रयोग आदेश, उचित सत्य, नियत फलदायी व्यवस्था आदि अनेक अर्थों में है-वैदिक माइथालोजी पृ० ११ ३. (क) कठोपनिषद् २।५।७, - (ख) पुण्डो वै पुण्डेन कर्मणा भवति पापः पापेनेति ३।२।१३ -बृहदारण्य कोपनिषद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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