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________________ ( १०० ) की इच्छा का परित्याग करना जैनों ने आवश्यक माना है । जीविताकांक्षा एवं मरणाकांक्षा, दोनों को ही जैन विचारकों ने समाधिमरण का दोष माना है । वह तो सहज और स्वाभाविक रूप में आने वाली मृत्यु का सत्कार और उससे भागने के प्रयत्नों का निराकरण है । समाधिमरण के सम्बन्ध में जनसाधारण एवं विद्वत्गण, दोनों में ही आज अनेक भ्रांतियां प्रचलित है । प्रस्तुत संगोष्ठी का प्रमुख उद्देश्य उन भ्रांतियों का निराकरण कर मनोवैज्ञानिक, नैतिक, समाजशास्त्रीय एवं संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में समाधिमरण की अवधारणा का सम्यक् मूल्यांकन करना है । मनोविज्ञान की दृष्टि से यह चिन्तन आवश्यक है कि समाधिमरण का ग्रहण करने वाले व्यक्ति की दंहिक स्थिति कैसी होनी चाहिए, उसके व्यक्तित्व की मनोवैज्ञानिक संरचना कैसी होनी चाहिए । दूसरे शब्दों में किस प्रकार की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक अवस्था वाला व्यक्ति समाधिमरण ग्रहण करने की पात्रता रख सकता है । साथ ही यह विचार भी अपेक्षित है कि समाधिमरण की अवस्था में व्यक्ति में किस प्रकार का मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होता है और उसके मानसिक समत्व को किस प्रकार अविचल बनाए रखा जा सकता है । इस सन्दर्भ में जैन आचार्यों के द्वारा सुझाये गये. सिद्धान्तों का मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य मे विचार करना आवश्यक है । इसी प्रकार समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से यह विचार करना आवश्यक है कि क्या समाज पर भारस्वरूप बने व्यक्ति को जीवन जीने का अधिकार है ? ऐसे व्यक्ति के प्रति समाज का कर्तव्य क्या है ? समाधिमरण की अवधारणा का सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है । क्या वह पलायनवादी जीवन दृष्टि को विकसित करती है ? चिकित्सा - शास्त्र की दृष्टि से यह विचार करना भी अपेक्षित है कि परिवार और समाज पर भार रूप बने हुए जीवन को विलम्बित करने की अपेक्षा देह रक्षण के प्रयत्नों के त्याग के द्वारा उसे प्राकृतिक रूप से समाप्त होने दिया जाय । इसके साथ ही मृत्यु-दान की अवधारणा का नैतिक और कानूनी मूल्यांकन भी आवश्यक है । क्या मृत्यु-दान ह्त्या के अपराध की कोटि में आता है ? संवैधानिक दृष्टि से व्यक्ति के ऐच्छिक मृत्यु के अधिकार पर विचार आवश्यक है तथा यह विचार भी आवश्यक है कि अपरिहार्य स्थिति में, जब जीवन जीने वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525006
Book TitleSramana 1991 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1991
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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