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( २ ) जैन अनुष्ठान और कला___ जैनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है और इस कारण सामान्यतया यह समझा जाता है कि उसमें कला और विशेष रूप से कृत्यात्मककला "परफारमिंग आर्ट' को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है। प्राचीन जैनागम उत्तराध्ययन में सभी गीतों को विलाप और सभी नृत्यों को विडम्बना कहकर उनकी भर्त्सना की गयी है तथा जैन श्रमण का संगीत, नृत्य और नाटक आदि में भाग लेना जित है किन्तु जैनों का कला के प्रति उदासीनता का यह रूप अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सका। उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि दृश्य और श्रव्य कलाएँ मानवीय जीवन का एक अविभाज्य अंग हैं और उनका पूर्ण तिरस्कार सम्भव नहीं है। यदि हम इन कलाओं में श्रमणों और गृहस्थ उपसकों को विलग नहीं रख सकते हैं तो फिर हमें यह प्रयत्न करना ही होगा कि इन कलाओं का प्रदर्शन इस प्रकार हो कि ये भोग की प्ररक न बनकर निर्वेद या वैराग्य की प्रेरक बनें। इस प्रकार जैनों का इन कलाओं के प्रति जो महत्त्वपूर्ण योगदान रहा वह यह कि उन्होंने इन कलाओं का उदात्तीकरण किया और उन्हें वैराग्य भावना और आध्यात्मिक पवित्रता का माध्यम बनाया। जैन साहित्य में ऐसे अनेक संदर्भ हैं जहाँ इन कलाओं को वैराग्य मूलक बनाया गया है। भगवान् ऋषभदेव के वैराग्य को प्रदीप्त करने में महत्त्वपूर्ण निमित्त कारण नीलांजना का कृत्य करते हुए देहपात हो जाना ही था। नीलांजना की यह कला हमारे सामने यह स्पष्ट कर देती है कि जैनों ने किस प्रकार इन कृत्यात्मक कलाओं को त्याग और वैराग्य के साथ जोड़ दिया है । इन कलाओं को निर्वेदमूलक बनाने के लिए यह आवश्यक था कि इनका सम्बन्ध जैन साधना की विधियों के साथ जोड़ा जाय। उन्होंने इन कलाओं को इस प्रकार से निश्चित किया कि वे धार्मिक जीवन और धार्मिक साधना पद्धति का ही एक अंग बन गयीं। यद्यपि यह सब भक्तिमार्गी परम्परा का प्रभाव था। प्रस्तुत निबन्ध में हम मात्र यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि किस प्रकार यह कृत्यात्मक कलाएँ
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