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________________ ( ८८ ) रूप में ग्रहण कर लिया जाता था। जबकि शेष पुरुषों एवं स्त्रियों को दासवृत्ति स्वीकार करने के लिए संत्रस्त किया जाता था। सम्भवतः अपने उपयोग से अधिक संख्या होने पर इन्हें उपहार या पारिश्रमिक के रूप में भी दिया जाता था।' दुभिक्षदास एवं ऋणदास-दुर्भिक्ष के समय उदरपूर्ति एवं अन्य आवश्यकता हेतु लिए गये ऋणों की समय पर अदायगी न किये जाने से ऋणी को ऋणदाता की अल्पकालिक अथवा जीवनपर्यंत दासता स्वीकार करनी पड़ती थी। उस समय वणिक अथवा गाथापति लोगों को आवश्यकतानुरूप कर्ज वितरित करते थे। परिस्थितवश यदि निर्धारित अवधि में ऋण लेने वाला व्यक्ति उसका सम्यक् भुगतान करने में असमर्थ रहता था तो उससे कहा जाता था कि या तो तुम कर्ज चुकाओ, अन्यथा गुलामी करो। धात्रियाँ-दास तथा दासियों के अतिरिक्त उस समय प्रायः सम्पन्न परिवारों में नवजात शिशुओं के पालन, संरक्षण, संवर्द्धन एवं विकास हेतु दाइयों की नियुक्ति की जाती थी। जैन सूत्रों में, राजपरिवार में विविध देशों से लायी गयी दासियों को उनके कार्यानुसार पाँच कोटियों में विभक्त किया गया है-(१) क्षीरधात्री, (२) मंडनधात्री, (३) भज्जनधात्री, (४) अंबधात्री एवं (५) क्रीडापनधात्री। ये दाइयाँ बच्चे को दूध पिलाने, वस्त्रालंकारों से सज्जित करने, स्नान कराने, गोंद में लेकर बच्चे को खिलाने तथा क्रीडा आदि कराने में संलग्न रहती थीं। दाइयों की स्थिति दासियों की अपेक्षा श्रेष्ठ थी। इसका कारण यह था कि दाइयों का स्वामीपुत्रों अथवा पुत्रियों से न केवल तब तक सम्बन्ध रहता था, जबतक वे नादान रहते थे बल्कि वे उनका उचित मार्गदर्शन वयस्क हो जाने पर भी करती थीं । राजपुत्रों के प्रव्रजित होते १. अन्तकृद्दशा ३।३ २. पिण्डनियुक्ति ३१७-१९; व्यवहारभाष्य, ४।२, २०६-७ ३. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० १५७-१५९ ४. ज्ञाताधर्मकथासूत्र १।१।९६; अन्तकृद्दशा ३२ ५. ज्ञाताधर्मकथा सूत्र १।१।९६ ६. वही १११।१४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525004
Book TitleSramana 1990 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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