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है तथा इनकी गणना भोग्य वस्तुओं के साथ की गई है। जैनागम काल में राजा एवं कुलीन व्यक्ति ही दासों के स्वामी नहीं होते थे अपितु धनसम्पन्न गाथापति एवं गृहस्थ भी अपने यहाँ दासों को नियुक्त कर उनसे सहयोग प्राप्त करते थे । सामान्यतया सेवावृत्ति ही दासों का प्रधान धर्म था। अतः उनकी स्थिति को शोचनीय मानते हुए वर्णित है कि महावीर के उपदेश में जिस प्रकार पापदृष्टि वाला कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को हीन समझता है, उसी प्रकार दास को भी हीन समझा जाता था।३ दासों के ऊपर दासपतियों को पूर्ण आधिपत्य प्राप्त था। अतः विवाह आदि अवसरों पर विविध वस्त्राभूषणों के साथ प्रीतिदान के अन्तर्गत इन्हें भी सम्मिलित कर लिया जाता था। इस प्रकार प्रीतिदान अथवा भेंट के रूप में दिये जाने पर दासों को श्वसुर पक्ष के अन्य सदस्यों के साथ गिना जाता था।
दासता के कारण-जैन आगम साहित्य में दास विषयक उल्लेखों के आधार पर दासों के प्रकार अथवा दासवृत्ति अपनाने के पीछे कार्यरत कुछ प्रमुख हेतुओं को विवेचित किया जा सकता है। स्थानांगसूत्र में छः प्रकार के दासों का उल्लेख किया गया है। इसमें जन्म से ही दासवृत्ति स्वीकार करने वाले, क्रीत ( खरीदे ) किये हुए दास, ऋणग्रस्तता से बने हुए दास, दुर्भिक्षग्रस्त होने पर, जुर्माने आदि को चुकता न करने पर तथा कर्ज न अदा करने के कारण बने दास उल्लेखनीय हैं।
जन्मदास-दास एवं दासी के साथ उसकी सन्तति पर भी दासपति के अधिकारों का प्रमाण मिलता है। अतः यह कहा जा सकता १. उत्तराध्ययन सूत्र ३।१७; प्रश्नव्याकरण सूत्र अ० २ पृ० १६० २. ज्ञाताधर्मकथा सूत्र २।१।१० ३. उत्तराध्ययन सूत्र, ११३९ ४. ज्ञाताधर्मकथा सूत्र, १।१६।१२८ ५. आचारांग सूत्र, २।१।३५० ६. स्थानांग सूत्र, ४।१९१-अ तथा देखिए-जे० सी० जैन, जैन आगम
साहित्य में भारतीय समाज, पृ० १५७ (चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी १९६५)
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