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ईश्वरत्व : जैन और योग-एक तुलनात्मक अध्ययन
.-डॉ० ललितकिशोर लाल श्रीवास्तव सामान्यतया ईश्वर को धर्म का केन्द्र बिन्दु माना जाता है । अपूर्ण, ससीम एवं दुर्बल मानव स्वभावतः एक असीम, सर्वशक्तिशाली एवं पूर्ण अलौकिक सत्ता की कल्पना करता है जो उससे अधिक बलवान् हो और जो उसकी मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करके उसकी मदद के लिए सदैव तैयार रहे। लेकिन भारतीय परम्परा में धर्म के लिए ईश्वर की अवधारणा को स्वीकार करना बाध्यता नहीं है। जैन
और बौद्ध धर्म बिना ईश्वर की सत्ता स्वीकार किये ही पहले दर्जे के धर्म की कोटि में गिने जाते हैं। यद्यपि इन धर्मों में भी इनके संस्थापक को कालान्तर में ईश्वरत्व का दर्जा प्राप्त हो जाता है। जैन धर्म में तीर्थंकर ईश्वररूप माने जाते हैं। वे अनंतज्ञान, अनंत शक्ति से युक्त हैं, उनमें राग-द्वेषादि नहीं है, वे समस्त ईश्वरीय गुणों से युक्त हैं। तीर्थंकर जगत् की सृष्टि के कारण नहीं हैं और न उनकी कृपा से निर्वाण की प्राप्ति ही होती है। योगदर्शन में भी ईश्वर को "पुरुष विशेष" माना गया है। वह सृष्टिकर्ता नहीं है। सृष्टि तो प्रकृति से सम्बन्धित है । विश्व विकास का परिणाम है।
सैद्धान्तिक रूप से जैन दर्शन ईश्वर विचार का खण्डन करता है। ईश्वर के अस्तित्व के लिए दिये गये परम्परागत प्रमाणों की आलोचना करके ईश्वर की सत्ता का निषेध करता है।' ईश्वर की सत्ता का खण्डन करने के लिए जैन दर्शन के पास ठोस आधार हैं।
१. द्रष्टव्य-प्रमेयकमलमार्तण्ड (आचार्य प्रभाचन्द्र ) द्वितीय अध्याय
तथा स्याद्वादमंजरी ( मल्लिसेन सूरि ) श्लोक ६ और उस पर हेमचन्द्र की टीका ।
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