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________________ ( ४१ ) 'उसकी परिचर्या कर सकती थी । भिक्षुओं के लिए भी सामान्यतया भिक्षुणी का स्पर्श वर्जित था किन्तु भिक्षुणी के कीचड़ में फँस जाने पर, नाव में चढ़ने या उतरने में कठिनाई अनुभव करने पर अथवा जब उसकी हिंसा अथवा शीलभंग के प्रयत्न किये जा रहे हों तो ऐसी स्थिति में भिक्षु भिक्षुणी का स्पर्श कर उसे सुरक्षा प्रदान कर जैन परम्परा में आचार्य कालक की कथा इस बात का है । भिक्षुणी के शोल की सुरक्षा को जैन भिक्षु प्राथमिक कर्तव्य माना गया था । सकता था । स्पष्ट प्रमाण संघ का अनिवार्य एवं इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में नारी के शील सुरक्षा के लिए पर्याप्त सतर्कता रखी गई थी । मात्र यही नहीं, जैनाचार्यों ने अपनी दण्ड व्यवस्था और संघ व्यवस्था में भी नारी की प्रकृति को सम्यक् रूप से समझने का प्रयत्न किया है । पुरुषों के बलात्कार और अत्यावारों से पीड़ित नारी को उन्होंने दुत्कारा नहीं, अपितु उसके समुद्धार का प्रयत्न किया । जैन दण्डव्यवस्था में उन भिक्षुणियों के लिये किसी प्रकार के दण्ड की व्यवस्था नहीं की गई थी, जो बलात्कार की शिकार होकर गर्भवती हो जाती थी, अपितु उनके और उनके गर्भस्थ बालक के संरक्षण का दायित्व संघ का माना गया था । प्रसवोपरान्त बालक के बड़ा हो जाने पर वे पुनः भिक्षुणी हो सकती थीं । इसी प्रकार वे भिक्षुणियाँ भी जो कभी वासना के आवेग में बहकर चारित्रिक स्खलन की शिकार हो जाती थीं, तिरस्कृत नहीं कर दी जाती, अपितु उन्हें अपने को सुधारने का अवसर प्रदान किया जाता था । इस तथ्य के समर्थन में यह कहा गया था कि क्या बाढ़ से ग्रस्त नदी पुनः अपने मूल मार्ग पर नहीं आ जाती है ? जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था में भी स्त्रियों या भिक्षुणियों के लिए परिहार और पाराञ्चिक (निष्कासन) जैसे कठोर दण्ड वर्जित मान लिये गये थे, क्योंकि इन दण्डों के परिणाम स्वरूप वे निराश्रित होकर वेश्यावृत्ति जैसे अनैतिक कर्मों के लिये बाध्य हो सकती थीं । इस प्रकार जैनाचार्य नारी के प्रति सदैव सजग और उदार रहे हैं । हम यह पूर्व में ही सूचित कर चुके हैं कि जैनधर्म का भिक्षुणी संघ उन अनाथ, परित्यक्ता एवं विधवा नारियों के लिए सम्मानपूर्वक जीने के लिए एक मार्ग प्रशस्त करता था और यही कारण है कि प्राचीन काल से लेकर आजतक जैनधर्म अभागी नारियों के लिए आश्रय स्थल या शरणस्थल बना रहा है। सुश्री हीराबहन बोरदिया ने अपने शोध कार्य के दौरान अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525004
Book TitleSramana 1990 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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