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________________ ( ९ ) 1 औषधि की गोली मांगती हैं । तो कभी अगरु, तगर आदि सुगन्धित द्रव्य, अपनी प्रसाधन सामग्री रखने हेतु पेटी, ओष्ठ रंगने हेतु चूर्ण, छाता, जूता आदि माँगती है । वह अपने वस्त्रों को रंगवाने का आदेश देती हैं तथा नाक के केशों को उखाड़ने के लिए चिमटी, केशों के लिए कंघी, मुख शुद्धि हेतु दातौन आदि लाने को कहती है । पुनः वह अपने प्रियतम से पानसुपारी, सुई-धागा, मूत्रविसर्जन पात्र, सूप, ऊखल आदि तथा देव पूजा हेतु ताम्रपात्र और मद्यपान हेतु मद्य पात्र माँगती है । कभी वह अपने बच्चों के खेलने हेतु मिट्टी की गुड़िया, बाजा, झुनझुना, गेंद आदि मंगवाती है और गर्भवती होने पर दोहद-पूर्ति के लिए विभिन्न वस्तुएँ लाने का आदेश देती है । कभी वह उसे वस्त्र धोने का आदेश देती है, कभी रोते हुए बालक को चुप कराने के लिए कहती है । इस प्रकार कामिनियाँ दास की तरह वशवर्ती पुरुषों पर अपनी आज्ञा चलाती हैं । वह उनसे गधे के समान काम करवाती हैं और काम न करने पर झिड़कती हैं, आँखें दिखाती हैं तो कभी झूठी प्रशंसा कर उससे अपना काम निकालती हैं । यद्यपि नारी स्वभाव का यह चित्रण वस्तुतः उसके घृणित पक्ष का ही चित्रण करता है किन्तु इसकी आनुभविक सत्यता से इन्कार भी नहीं किया जा सकता । किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि नारी के 'प्रति जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अनुदार ही था, उचित नहीं होगा । जैन धर्मं मूलतः एक निवृत्तिपरक धर्म रहा है, निवृत्तिपरक होने के कारण उसमें संन्यास और वैराग्य पर विशेष बल दिया गया है । संन्यास और वैराग्य के लिए यह आवश्यक था कि पुरुष के सामने नारी का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जाय जिसके फलस्वरूप उसमें विरक्ति का भाव प्रस्फुटित हो । यही कारण था कि जैनाचार्यों ने आगमों और आगमिक व्याख्याओं और इतर साहित्य में कठोर शब्दों में नारी चरित्र की निन्दा की, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं रहा कि जैनाचार्यों के सामने नारी चरित्र का • उज्ज्वलतम पक्ष नहीं रहा है । सूत्रकृतांग निर्युक्ति में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो शोल - प्रध्वंसक चरित्रगत दोष नारी में पाये जाते हैं पुरुषों में भी पाये जाते हैं इसलिए वैराग्य मार्ग में प्रवर्तित स्त्रियों को भी पुरुषों से उसी प्रकार बचना चाहिए जिस प्रकार स्त्रियों से पुरुषों को बचने का उपदेश दिया गया है।' इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैना१. एए चेव य दोसा पुरिससमाये वि इत्थियाणं पि । - सूत्रकृतांगनिर्युक्ति गाथा ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525004
Book TitleSramana 1990 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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