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________________ ( ७४ ) (१) साधक दस प्रकार की समाचारी में स्थित रहे। (२) उसकी आहार आदि में गृद्धआसक्ति न रहे। (३) अप्रमत्त होकर अपनी आत्मा का या रत्नत्रय का संरक्षण करे। (४) गमनागमन, आसन, शयन, खानपान में विवेक रखे । (५) पूर्वोक्त तीनों स्थानों, समितियों अथवा इनके मन, वचन, काय गुप्ति रूपी तीन स्थानों में मुनि सतत संयत रहे। ..(६) क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों का परित्याग करे। (७) सदा पंचसमिति (इर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेप समिति और उत्सर्ग समिति) से युक्त अथवा सदा समभाव से प्रवृत्त होकर रहे। (८) प्राणातिपातादि विरमण रूप पंचमहाव्रत रूप संवरों से युक्त रहे। (९) भिक्षाशील साधु गार्हस्थ्य बंधनों से बंधे हुए गृहस्थों से आसक्ति पूर्वक बंधा हुआ न रहे । ___ (१०) मोक्ष प्राप्त होने तक संयमानुष्ठान में प्रगति करे एवं अडिग रहे । चूँकि चारित्र कर्मास्रव के निरोध का, परम संवर का एवं मोक्षमार्ग का साक्षात् और प्रधान कारण है इसलिए सूत्रकार ने चारित्रशुद्धि के लिये उपदेश दिया है । ___इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकृतांग (प्रथम अध्ययन के प्रथम से लेकर चौथे उद्देशक तक) में भारतीय दर्शन में वर्णित प्रायः सभी मतवादों का कुशल समावेश कर उनकी मीमांसा की गई है । ऐसा कोई मतवाद नहीं है जिसे सूत्रकार की पैनी दृष्टि ने स्पर्श न किया हो। यद्यपि सूत्रकार ने किसी भी सम्प्रदाय विशेष का नामोल्लेख नहीं किया है, केवल उनके दार्शनिक मन्तव्यों को ही आधार मानकर स्वपक्षमण्डन व परपक्ष निरसन किया है, फिर भी वह अपने उद्देश्य में सर्वथा सफल रहा है । सम्प्रदायों का स्पष्टनामोल्लेख न मिलने का कारण बहुत कुछ सीमा तक उन-उन मतवादों का उस समय तक पूर्णरूपेण विकसित न होना माना जा सकता है। बाद के टीकाकारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525002
Book TitleSramana 1990 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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