________________
( ७० )
का विनाश एवं धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।'
स्व-स्व प्रवाद प्रशंसा एवं सिद्धि का दावा-सूत्रकार के अनुसार जगत्कर्तृत्त्ववादी आजीवक कार्य-कारण विहीन एवं युक्तिरहित अपने ही मतवाद की प्रशंसा करते हैं। वे सिद्धिवादी स्वकल्पित सिद्धि को ही केन्द्र मानकर उसी से इहलौकिक एवं पारलौकिक सिद्धि को सिद्ध करने के लिये युक्तियों की खींचतान करते हैं। परन्तु जो दार्शनिक मात्र ज्ञान या क्रिया से अष्टभौतिक ऐश्वर्य, अन्य लौकिक एवं यौगिक उपलब्धियों से मुक्ति मानते हैं वे सच्चे अर्थ में संवृत्त नहीं हैं। बस्तुतः वे स्वयं को सिद्धि से भी उत्कृष्ट ज्ञानी, मुक्तिदाता व तपस्वी कहकर अनेक भोले लोगों को भ्रमित करते हैं। फलतः ये मतवादी इन तीन दुष्फलों को प्राप्त करते हैं-(i) अनादि संसार में बार-बार परिभ्रमण, (ii) दीर्घकाल पर्यन्त भवनपति देव (असुर) योनि में एवं (iii) अल्प ऋद्धि, आयु तथा शक्ति से युक्त अधम किल्विषित देव के रूप में उत्पत्ति।
मुनिधर्मोपदेश - सूत्रकृतांग की ७६ से ७९ तक की गाथाओं में शास्त्रकार ने निर्ग्रन्थ हेतु संयम, धर्म एवं स्वकर्त्तव्य बोध का इस प्रकार निरूपण किया है(i) पूर्वसम्बन्ध त्यागी, अन्ययूथिक साधु, गृहस्थ को समारम्भ
युक्त कृत्यों का उपदेश देने के कारण शरण ग्रहण करने
योग्य नहीं है। (ii) विद्वान् मुनि उन्हें जानकर उनसे आसक्ति जनक संसर्ग
न रखें।
१. (i) यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत् । . अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
गीता ४११.७ (ii) वही ४८ २. सूत्रकृतांगसूत्र-१।३।७२-७५ ३. वही-१।४।७६-७९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org