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________________ ( ५ ) - साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विधसंघ को ही तीर्थ और उसके संस्थापक को तीर्थङ्कर कहा गया है । यद्यपि परवर्ती काल में पवित्र स्थल भी द्रव्य तीर्थ के रूप में स्वीकृत किये गये हैं । तोर्थ शब्द धर्मसंघ के अर्थ में प्राचीन काल में श्रमण परम्परा के साहित्य में 'तीर्थ' शब्द का प्रयोग धर्म संघ के अर्थ में होता रहा है । प्रत्येक धर्मसंघ या धार्मिक साधकों का वर्ग तीर्थ कहलाता था, इसी आधार पर अपनी परम्परा से भिन्न लोगों को तैथिक या अन्यतैर्थिक कहा जाता था । जैन साहित्य में बौद्ध आदि अन्य श्रमण परम्पराओं को तैथिक या अन्यतैथिक के नाम से अभिहित किया गया है ।" बौद्ध ग्रन्थ दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त में भी निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र महावीर के अतिरिक्त मंखलिगोशालक, अजित केशकम्बल, पूर्णकाश्यप, पकुधकात्यायन आदि को भीतित्थकर ( तीर्थंकर ) कहा गया है । इससे यह फलित होता है कि उनके साधकों का वर्ग भी तीर्थ के नाम से अभिहित होता था जैन परम्परा में तो जैनसंघ या जैन साधकों के समुदाय के लिए तीर्थ शब्द का प्रयोग प्राचीन काल से लेकर वर्तमान युग तक यथावत् प्रचलित है । आचार्य समन्तभद्र ने महावीर की स्तुति करते हुए कहा है कि हे भगवन् ! आपका यह तीर्थ सर्वोदय अर्थात् सबका कल्याण करने वाला है।' महावीर का धर्मसंघ सदैव ही तीर्थ के नाम से अभिहित किया जाता रहा है । साधना को सुकरता और दुष्करता के आधार पर तीर्थों का वर्गीकरण विशेषावश्यकभाष्य में साधना पद्धति के सुकर या दुष्कर होने के आधार पर भी इन संघरूपी तीर्थों का वर्गीकरण किया गया है । १. २. 2. 'परतित्थिया' - सूत्रकृतांग, १|६|१ एवं वृत्ते, अन्नतरी राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच - 'अयं, देव, पूरणो कस्सपो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च नातो, यसस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मतो बहुजनस्स, रत्तन्नू, चिरपब्बजितो, अद्धगतो वयोअनुपपत्तो । दीघनिकाय ( सामञ्ञफलमुत्तं ) २२ सामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवेव ॥ ६१ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, पृ०१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525002
Book TitleSramana 1990 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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