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________________ __ अज्ञानवादियों के सन्दर्भ में दो प्रकार के मत मिलते हैं -एक तो वे अज्ञानवादी हैं जो स्वयं के अल्पमिथ्याज्ञान से गर्वोन्मत्त समस्त ज्ञान को अपनी विरासत मानते हैं, जबकि यथार्थतः उनका ज्ञान केवल पल्लवग्राही होता है। ये तथाकथित शास्त्रज्ञानी वीतराग सर्वज्ञ की अनेकान्तरूप तत्त्वज्ञान से युक्त, सापेक्षवाद से ओत प्रोत वाणी को गलत समझकर एवं उसे संशयवाद की संज्ञा देकर ठुकरा देते हैं।' दूसरे अज्ञानवादी अज्ञान को ही श्रेयस्कर मानते हैं। उनके मत में ज्ञानाभाव में वे वाद-विवाद,वितण्डा,संघर्ष, कलह, अहंकार, कषाय आदि के प्रपञ्च से बचे रहेंगे। वे मन में रागद्वेषादि उत्पन्न न होने देने का सबसे सरल उपाय ज्ञान-प्रवत्ति को छोड़कर अज्ञान में ही लीन रहना मानते हैं। अज्ञान को श्रेयस्कर मानने वाले अज्ञानवादी सभी यथार्थ ज्ञानों से दूर रहना चाहते हैं-सबते भले मूढ़, जिन्हें न व्याप जगत गति । क्रियावाद या कर्मोपचय निषेधवाद --बौद्ध दर्शन को सामान्यतया अक्रियावादी दर्शन कहा गया है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय के तृतीय भाग-अट्ठक निपात के सिंहसुत्त में तथा विनयपिटक के महावग्ग की सिंहसेनापतिवत्थु में बुद्ध के अक्रियावादी होने के उल्लेख हैं । सूत्रकृतांग के बारहवें समवसरण अध्ययन में सूत्र ५३५ की चूणि एवं वृत्ति में बौद्धों को कहीं अक्रियावादी एवं कहीं क्रियावादी-दोनों कहा गया है, किन्तु इस विरोध का परिहार करते हुये कहा गया है कि यह अपेक्षा भेद से है। क्रियावादी केवल चैत्य कर्म किये जाने वाले (चित्तविशुद्धिपूर्वक) किसी भी कर्म आदि क्रिया को प्रधान रूप से मोक्ष का अंग मानते हैं। बौद्ध चित्त शुद्धिपूर्वक सम्पन्न प्रभूत हिंसा युक्त क्रिया को एवं अज्ञानादि से किये गये निम्न चार प्रकार के कर्मों १. सूत्रकृतांगसूत्र, पृ० ३३ २. वही ११२।५१-५६ ३ अहं हि सीह । अकिरियं वदामि कापदुच्चरितस्म वचीदुच्चरितस्य, मनो दुच्चरितस्य अनेक विहितानां पापकानं अकुसलानं अकिरियं वदामि । सुत्तपिटके अंगुत्तर निकाय, पालि भाग ३, अट्ठकनिपात पृ० २९३-९६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525002
Book TitleSramana 1990 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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