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मिथ्यात्व है । प्रत्येक पदार्थ द्रव्य रूप से सत् और पर्याय रूप से असत् या अनित्य है', ऐसा सत्यग्राही व्यक्ति मानते हैं। यहाँ शास्त्रकार ने अनेकान्तवाद की कसौटी पर आत्मषष्ठवादी सिद्धान्त को कसने का सफल प्रयास किया है।
क्षणिकवाद-बौद्धदर्शन का अनात्मवाद क्षणिकवाद एवं प्रतीत्यसमुत्पाद पर निर्भर है। यह अनात्मवाद सर्वथा तुच्छाभावरूप नहीं है क्योंकि आत्मवादियों की तरह पुण्य-पाप,कर्म-कर्मफल, लोक-परलोक पुनर्जन्म एवं मोक्ष की यहाँ मान्यता और महत्ता है। दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त और मज्झिमनिकाय के सम्बासव्वसुत्त के अनु. सार महात्माबुद्ध के समय में आत्मवाद की दो विचार धाराएँ प्रचलित थीं-प्रथम शाश्वत आत्मवादी विचारधारा --जो आत्मा को नित्य एवं दूसरी उच्छेदवादी विचारधारा-जो आत्मा का उच्छेद अर्थात् उसे अनित्य मानती थी। बुद्ध ने इन दोनों का खण्डन कर अनात्मवाद का उपदेश किया, परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उन्हें आत्मा में विश्वास नहीं था । वे आत्मा को नित्य और व्यापक न मानकर क्षणिक चित्तसंतति रूप में स्वीकार करते थे। ___विसुद्धिमग्ग, सुत्तपिटक गत अंगुत्तरनिकाय आदि बौद्ध ग्रंथों के अनुसार क्षणिकवाद के दो रूप हैं-एक मत रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पंचस्कन्धों से भिन्न या अभिन्न सुख, दुख, इच्छा, द्वेष व ज्ञानादि के आधारभूत आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं मानता है। इन पंचस्कन्धों से भिन्न आत्मा का न तो प्रत्यक्ष अनुभव होता है, न ही आत्मा के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला कोई लिंग भी गृहीत होता है, जिससे आस्मा अनुमान द्वारा जानी जा सके। ये पंचस्कंध क्षणभोगी हैं, न तो ये कूटस्थ नित्य हैं और न ही कालान्तर १. सूत्रकृतांग की शीलां कवत्ति पत्रांक २४-२५ २. सूत्रकृतांग सूत्र-१।१।१७-१८ ३. दीघलिका १:१ (अनुवाद भिक्ष राहुल सांकृत्यायन, एव जगदीश कश्यप
प्रका० भारतीय बौद्ध शिक्षा परिषद् वुद्धविहार, लखनऊ) ४. मज्झिमनिकाथ-१।१२ ५. महावग्ग---१।६ पृ० ११-१६ (सम्पा० भिक्खूजगदीशकश्यपो, विहार
राजकीयेन पालिपकासन मंडलेन प्रकाशिता सन् १९५६)
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