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के आरम्भिक चार उद्देशकों में निहित दार्शनिक मान्यताओं एवं सिद्धान्तों का अनुशीलन करेंगे । वे इस प्रकार हैं- बंधन का स्वरूप, पंचमहाभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, क्षणिकवाद, सांख्यादिमत की निस्सारता नियतिवाद, अज्ञानवाद, क्रियावाद, जगत्कर्तृत्त्ववाद, अवतारवाद, स्वस्वप्रवाद - प्रशंसा, मुनिधर्मोपदेश, लोकवाद, अहिंसा महाव्रत एवं चारित्र शुद्धि-उपाय |
सुत्रकृतांग' की आदि गाथा के चार पदों में ग्रन्थ के सम्पूर्ण तत्त्वचिंतन का सार समाविष्ट है
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बंधणं परिजाणिया = बंधन को जानकर बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा = समझो और तोड़ो किमाह बंधणं वीरे - भगवान ने बंधन किसे बताया है ? किंवा जाणं तिउट्टइ = और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? वस्तुतः इन पदों में दर्शन और धर्म, विचार और आचार बीजरूप जिसका में सन्निहित हैं । शास्त्रकार ने आदिपद में बोध प्राप्ति का, तात्पर्य आत्मबोध से है, उपदेश किया है । बोध प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, यह तथ्य सूत्रकृतांग, आचारांग, उत्तराध्ययन े आदि ग्रन्थों में भी परिलक्षित होता है । बोध प्राप्ति एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों को दुर्लभ है । आर्यक्षेत्र, उत्तमकुलोत्पन्न, परिपूर्ण इन्द्रियाँ, परिपूर्ण अंगोपांग एवं स्वस्थ सशक्त शरीर से युक्त दीर्घायुष्य को प्राप्त मनुष्य ही केवल बोधिप्राप्ति का अधिकारी है । आत्म बोध का अर्थ है - 'मैं कौन हूँ' ? मनुष्य लोक में कैसे आया ? आत्मा तत्त्वतः बंधन रहित होते हुए इस भी प्रकार के बंधन में क्यों पड़ी ? बंधनों को कौन और कैसे तोड़ सकता है ? आदि ।
बंधन का स्वरूप - संसारी आत्मा कर्मों से जकड़ी होने के कारण परतन्त्र है, इसी परतन्त्रता का नाम बंध है । उमास्वाति ने १. सूत्रकृतांग गाथा १० (सं० व अनु० मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, राजस्थान, १९८२)
२. उत्तराध्ययन सूत्र - ८1१५
३. बध्यतेऽनेन बन्धनमालं वा बन्धः- तत्वार्थवार्तिक, भाग १, पृ० २६ भट्ट अकलंकदेव, सम्पा० महेन्द्र कुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी वि० नि० सं० २४९९
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