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________________ ( ३७ ) नहीं चाहते - सव्वे जीवा वि इछंति जीविउं, ण, मारिज्जि- इसलिए किसी भी जीव की हिंसा घृणित कार्य है। इस उक्ति की स्पष्ट शब्दों में पुष्टि याज्ञिकी हिंसा में की गयी थी के विरोध, जिसका विधान वैदिक कर्मकांड में है। यह बताया जाना चाहिए कि भारत के सभी. धर्मों में जैन धर्म ही ऐसा है जिसने अहिंसा का अधिकतम सीमा तक पक्ष लिया और परिपालन भी किया। यह एक ऐसा सत्य है, जिसने शुब्रिग को यह कहने को विवश कर दिया कि जैन लोग कीड़ों-मकोड़ो जैसे प्राणियों की आदमी से भी अधिक चिता करते हैं। जनसंख्या में शाकाहारियों के अधिक प्रतिशत, विशेषतः पश्चिमी भारत में, का श्रेय जैन संस्कृति और उसकी अहिंसावादिता को दिया जाना चाहिए। .. श्रमण परंपरा द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक स्वतन्त्रता जैन संस्कृति की पृष्ठास्थि रही है। प्राचीन जैन द्रष्टाओं ने किसी भी व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मापदण्ड उसका आचार बताया है, उसका जानि-विशेष या परिवार-विशेष में जन्म नहीं। क्योंकि श्रमण परंपरा में आचार या व्यवहार की पवित्रता पर विशेष बल दिया गया है, अतः जातिव्यवस्था की परंपरा और उच्च-नीच का भेद अधिक समय तक नहीं चल सका। अंगुत्तरनिकाय आदि बौद्ध ग्रन्थ और मूल-सूत्र आदि जैन ग्रन्थों में यह पूर्णतया स्पष्ट रूप से अंकित है। उदाहरण के लिए, उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्याय में एक सच्चे ब्राह्मण के लक्षण बताये गये हैं । अहिंसा, निःस्पृहता, ब्रह्मचर्य, सत्य और अपरिग्रह के पालन से ही कोई व्यक्ति ब्राह्मण कहलाने का पात्र हो सकता है। उस ग्रन्थ की अग्रलिखित गाथाओं से यह बात स्पष्ट होगी और ज्ञात होगा कि बाह्य लक्षणों से कोई लाभ नहीं होता : न वि मुडिएण समणो, न ओकारेण बंभणो, न मुनि रण-वासेणं कुस-चीरेण न तावसो । २५.३१ समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो, नाणेण य मुनि होई तवेण होइ तावसो। २५.३२ कम्मुणा बंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ, वइसो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा । २५.३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525002
Book TitleSramana 1990 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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