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जैन संस्कृति और श्रमण परम्परा
- डा० शान्ताराम भालचन्द्र देव भारत में जैन धर्म श्रमण परंपरा का एक प्रभावशाली अंग रहा है, यह तथ्य अब समुचित मान्यता प्राप्त कर चुका है। यह भी सभी दृष्टियों से स्वीकृत हो चुका है कि जैन धर्म का आरंभ और अस्तित्व स्वतंत्र है और वह बौद्ध धर्म की शाखा नहीं है। जैन साहित्य और परंपरा के निरंतर और गम्भीर अध्ययन से यह मान्यता और भी अधिक पुष्ट हुई है।।
तथापि, इन तथ्यों की अधिकतम समीक्षा आवश्यक है कि जैन धर्म का प्राचीन साधु-वर्ग अर्थात् भ्रमणशील संप्रदाय से वस्तुतः क्या संबंध था और प्राचीन भारत की मौलिक श्रमण परंपरा के प्रति जैन धर्म वास्तव में समर्पित रहा भी है या नहीं ? कारण यह है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म के अतिरिक्त भ्रमणशील साधुओं के अन्य वर्गों का वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है, जिनकी प्राचीनता जैन और बौद्ध मतों के ग्रंथों से भी अधिक है।
ऐतिहासिक परिवेश की दृष्टि से, हमें उस दृष्टिकोण को गंभीरता से लेना आवश्यक नहीं है, जो जैन धर्म की प्राचीनता के संदर्भ में परंपरावादियों द्वारा व्यक्त किया जाता है। एक दृष्टि से वह विश्वास के परे है । शुब्रिग का कथन सटीक है कि पार्श्वनाथ से पूर्व का संपूर्ण वृतांत अनुश्रुति की धुन्ध में समाहित हो गया लगता है। परंपरावादी दष्टिकोण से प्रथम तीर्थङ्कर का जो समय माना जाता है वह वास्तविक अंकों में लिखा ही नहीं जा सकता। तथापि, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता क्रमशः आठवीं शती ई० पू० और छठी शती ई० पू० में निर्धारित की जा सकती है ।
इस युग का भारत के धार्मिक और सामाजिक इतिहास में व्यापक महत्त्व है, क्योंकि यह ऐसी कालावधि है जिसमें बौद्धिक ऊहापोह का ऋषभदेब प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित 'भारतीय साहित्य में श्रमण परम्परा' नामक संगोष्ठी में पठित लेख ।
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