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जैनधर्म में तीर्थ की अवधारणा
-प्रो० सागरमल जैन जैनधर्म में तीर्थ का महत्त्व ___ममग्र भारतीय परम्पराओं में 'तीर्थ' की अवधारणा को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है फिर भी जैन परम्परा में तीर्थ को जो महत्त्व दिया गया है वह विशिष्ट ही है, क्योंकि उसमें धर्म को ही तीर्थ कहा गया है
और धर्म-प्रवर्तक तथा उपासना एवं साधना के आदर्श को तीर्थंकर कहा गया है। अन्य धर्म परम्पराओं में जो स्थान ईश्वर का है, वही जैन परम्परा में तीर्थङ्कर का है। तीर्थङ्कर को धर्मरूपी तीर्थ, का संस्थापक माना जाता है। दूसरे शब्दों में जो तीर्थ अर्थात् धर्म मार्ग की स्थापना करता है, वही तीर्थङ्कर है। इस प्रकार जैनधर्म में तीर्थ एवं तीर्थङ्कर की अवधारणाएँ परस्पर जुड़ी हुई हैं और वे जैनधर्म की प्राण हैं। जैनधर्म में तीर्थ का सामान्य अर्थ
जैनाचार्यों ने तीर्थ की अवधारणा पर विस्तार से प्रकाश डाला है। तीर्थ शब्द की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या करते हुए कहा गया हैतीर्यते अनेनेति तीर्थः' अर्थात् जिसके द्वारा पार हुआ जाता है वह तीर्थ कहलाता है। इस प्रकार सामान्य अर्थ में नदी, समुद्र आदि के वे तट जिनसे उस पार जाने की यात्रा प्रारम्भ की जाती थी तीर्थ कहलाते थे; इस अर्थ में जैनागम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में मागध तीर्थ, वरदाम तीर्थ और प्रभास तीर्थ का उल्लेख मिलता है। तीर्थ का लाक्षणिक अर्थ . __लाक्षणिक दृष्टि से जैनाचार्यों ने तीर्थ शब्द का अर्थ लिया-जो संसार समुद्र से पार करता है, वह तीर्थ है और ऐसे तीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थङ्कर है। संक्षेप में मोक्ष मार्ग को ही तीर्थ कहा गया है। आवश्यकनियुक्ति में श्रुतधर्म, साधना-मार्ग, प्रावचन, प्रवचन १. (अ) अभिधानराजेन्द्रकोष, चतुर्थ भाग, पृ० २२४२ .
(ब) स्थानांग टीका । २. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ३।५७,५९, ६२ (सम्पा० मधुकर मुनि)
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