________________
(96)
जिन यात्रा के सन्दर्भ में हरिभद्र के पंचाशक में विशिष्ट विवरण उपलब्ध होता है । हरिभद्र ने नवें पंचाशक में जिन - यात्रा के विधि विधान का निरूपण किया है किन्तु ग्रन्थ को देखने से ऐसा लगता है कि वस्तुतः यह विवरण दूरस्थ तीर्थों में जाकर यात्रा करनेकी अपेक्षा अपने नगर में ही जिन प्रतिमा की शोभा - पात्रा से सम्बन्धित है । इसमें यात्रा के कर्तव्यों एवं उद्देश्यों का निर्देश है उसके अनुसार जिनयात्रा में जिनधर्म की प्रभावना के हेतु यथाशक्ति दान, तप, शरीर-संस्कार उचित गीत वादित्र, स्तुति आदि करना चाहिए ।" तीर्थ यात्राओं में श्वेताम्बर परम्परा में जो छह - री पालक संघ यात्रा की जो प्रवृत्ति प्रचलित है, उसके पूर्व बीज भी हरिभद्र के इस विवरण में दिखाई देते हैं । आज भी तीर्थयात्रा में इन छह बातों का पालन अच्छा माना जाता है
।
१. दिन में एकबार भोजन करना ( एकाहारी) २. भूमिशयन (भू-आधारी )
३. पैदल चलना ( पादचारी)
४ शुद्ध श्रद्धा रखना ( श्रद्धाधारी)
५ सर्वसचित्त का त्याग (सचित्त परिहारी ) ६. ब्रह्मचर्य का पालन ( ब्रह्मचारी)
तीर्थों के महत्त्व एवं यात्राओं सम्बन्धी विवरण हमें मुख्य रूप से परवर्ती काल के ग्रन्थों में ही मिलते हैं । सर्वप्रथम 'सारावली' नामक प्रकीर्णक में शत्रु जय 'पुण्डरीक तीर्थ' की उत्पत्ति कथा उसका महत्त्व एवं उसकी यात्रा तथा वहां किये गये तप, पूजा, दान आदि के फल विशेष रूप से उल्लिखित हैं ।
२.
१. श्री पंचाशक प्रकरणम् - हरिभद्रसूरि जिनयात्रा पंचाशक पृ०२४८-६३ अभयदेव सूरि की टीका सहित प्रकाशक - ऋषभदेव केशरीमल श्वे, संस्था, रतलाम )
पइण्णयसुत्ताइ - सारावली पइण्णयं पृ० ३५०-६०
सम्पादक निपुण्यविजयजी, प्रकाशक श्री महावीर विद्यालय
बम्बई ४०० ०३६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org