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________________ ( १०६ ) शतक आदि उल्लेखनीय हैं। काश ! इन ग्रन्थों का भी प्रस्तुत कृति में निर्देश किया गया होता तो ग्रन्थ की गरिमा में और भी वद्धि हो जाती। सिरीसहजाणंदघनचरियं : रचयिता-श्री भवंरलाल नाहटा; संपा० महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर; पृ० १६+-१०१; प्रकाशन वर्ष-१९८९; प्रकाशक-प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर-३०२००३।। जैन विद्या के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री भवंरलाल नाहटा द्वारा रचित सिरिसहजानन्दधनचरियं एक अपभ्रंश काव्य है। प्रो० सत्यरंजन वंदोपाध्याय ने इसे अपभ्रंश के अंतिम स्तर की भाषा अवहट्ट (अपभ्रष्ट) में रचित बतलाया है। यह रचना २४४ श्लोकों में है, साथ ही उसका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है। ___अध्यात्मयोगी अवधूत श्री सहजानंदघनजी आधुनिक युग के एक ऐसे महान् सन्त हुए हैं, जिनके जीवन से अनेक लोगों ने प्रेरणायें प्राप्त की हैं। श्री नाहटाजी अनेक अवसरों पर योगी जी के साथ रहे। उन्हें उनके जीवन के विविध पहलुओं को देखने का अवसर मिला, जिसका उन्होंने इस रचना में उल्लेख किया है । ____ आज के युग में जब प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का पठन पाटन लुप्तप्राय है, केवल कुछ लोग ही इन भाषाओं के ज्ञाता हैं, ऐसे समय में श्री भवंरलाल जी नाहटा ने अपनी इस रचना के माध्यम से लुप्त अपभ्रंश काव्य के पुनरुद्धार का एक प्रयास किया है, साथ ही प्रत्येक श्लोक के साथ उसका हिन्दी अनुवाद देकर सर्वसाधारण के लिये इस पुस्तक को ग्राह्य बना दिया है। वस्तुतः यह जीवनी इतनी प्रभावशाली शैली में है कि बिना पूरा पढ़े पाठक को संतुष्टि नहीं होती। ऐसी महत्त्वपूर्ण और लोकोपकारी कृति की रचना श्री नाहटाजी ऐसे समर्थ विद्वान् के ही वश की बात है। __हरिवंशपुराण : एक सांस्कृतिक अध्ययन : लेखक-डॉ० राममूर्ति चौधरी; पृ० ८३७३; मूल्य-१३२ रुपये; प्रथम संस्करण-१९८९; प्रकाशक --सुलभ प्रकाशन, १७, अशोक मार्ग, लखनऊ। प्रस्तुत पुस्तक "हरिवंशपुराण का सांस्कृतिक अध्ययन" काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत शोधप्रबन्ध का मुद्रित रूप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525002
Book TitleSramana 1990 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1990
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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