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________________ जैनविद्या 25 83 का पालन करें' (गाथा 273-277)। आचार्य नवीन आचार्य से मन, वचन, काय से क्षमा याचना करते हैं (गाथा 278)। नये आचार्य को हितकारी शिक्षा भी देते हैं कि शील और गुणों से आगे बढ़ना (गाथा 284)। राजाविहीन या दुष्ट राजा का क्षेत्र त्याग दें (गाथा 296)। जहाँ शिष्य न बनें वह क्षेत्र भी त्याज्य है (गाथा 297)। आग और आर्याओं का संसर्ग वर्जनीय है (गाथा 332)। शरीर विनाशीक है। उसकी रक्षा संभव नहीं है। यश की रक्षा करने योग्य है क्योंकि वह नष्ट नहीं होता। शरीर के छूट जाने पर भी मनुष्य यशरूपी शरीर से जीवित रहता है। कहा भी है - काये पातिनी का रक्षा यशो रक्ष्यमपाति यत्। . नरः पतितकायोऽपि यशःकायेन धार्यते।। पृ.291 ___ गुरु का उपदेश सुनकर संघ कहता है - हे आचार्य! आपके ये वचन हमारे लिए मंगलकारी होने से स्वीकार हैं (गाथा 378)। इस गण से पूछकर आचार्य आराधना (सल्लेखना) के लिए दूसरे गण में जाने का विचार स्थिर करते हैं (गाथा 386)। समाधि का इच्छुक यति बारह वर्ष पर्यन्त जिनागम सम्मत निर्यापक को खोजता है (गाथा 404)। अन्त में निर्यापक आचार्य पाकर प्रसन्न मन से सल्लेखनापूर्वक क्षमक अपने जीवन को सार्थक करता है। निर्यापकाचार्य भी श्रम की परवाह न कर क्षपक की सभी प्रकार से सेवा करते हैं (गाथा 459)। सल्लेखना में देह और कषाय दोनों का कृष होना आवश्यक है। केवल शरीर का कृश होना सार्थक नहीं है, निष्फल है। व्रतादि इसमें परम सहायक हैं। व्रतों से दोनों की साधना सम्भव है। समाधिपूर्वक मरण ही कल्याणकारी है। देह-विसर्जन में हर्षित हो और किसी प्रकार की आकांक्षा न करे। उपनिदेशक जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी 0 0 0 * यह लेख जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर से प्रकाशित संस्करण पर आधारित
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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