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________________ जैनविद्या 25 10 3. मारणान्तिकी सल्लेखना जोषिता - त.स. 7-22 4. भट्ट अकलंकदेव, तत्त्वार्थराजवार्तिक, 7.22 5. समन्तभद्राचार्य, रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक - 123 6. एगम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो। ण हु सो हिंडदि बहुसो सत्तट्ठभवे पमोत्तूण।।681।। - भगवती आराधना 7. सल्लेहणाए मूलं जो वच्चइ तिव्वभत्तिरायण। भोत्तूण य देवसुहं सो पावइ उत्तमं ठाणं।।680।। - भगवती आराधना 8. मरणस्यानिष्टत्वात..............सर्वार्थसिद्धि, 7-22 9. (क) तत्त्वार्थवार्तिक, 7.22.21 (ख) आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक 122 10. भट्ट अकलंकदेव 11. शिवार्य, भगवती आराधना, श्लोक 71 एवं 72 12. मरणकण्डिका, 5.139 13. चित्तं समाहिदं जस्स होज वज्जिदविसोत्तियं वसियं। सो वहदि णिरदिचारं सामण्णधुरं अपरिसंतो।।134।। - भगवती आराधना 14. वादुब्भामो व मणो परिधावइ अट्ठिदं तह समंता। सिग्धं च जाइ दूरंपि मणो परमाणुद्रव्वं वा।।136।। - भगवती आराधना 15. अंघलयबहिरमूवो व्व मणो लहुमेव विप्पणासेइ। दुक्खो य पडिणियत्ते, जो गिरिसरिदसोदं वा।।137।। - भगवती आराधना 16. तत्तो दुक्खे पंथे पाडेदुं दुट्ठओ जहा अस्सो। वीलणमच्छोव्व मणो णिग्घेत्तुं दुक्करो धणिदं।।138।। - भगवती आराधना 17. जस्स य कदेण जीवा संसारमणंतयं परिभमंति। भीमासुहगदिबहुलं दुक्खसहस्साणि पावंता।।139।। - भगवती आराधना 18. जम्हि य वारिदमेत्ते सव्वे संसारकारया दोसा। णासंति रागदोसादिया हु सजो मणुस्सस्स।।140।। - भगवती आराधना 19. इय दुट्ठयं मणं जो वारेदि पडिट्ठवेदि य अकंपं। सुहसंकप्पपयारं च कुणदि सज्णयसण्णिहिद।।141।। - भगवती आराधना 20. जो विय विणिप्पउतं मणं णियत्तेदि सह विचारेण। णिग्गहदी य मणं जो करेदि अदिलज्जियं च मणं।।142।। - भगवती आराधना 21. दासं व मणं अवसं सवसं जा कुणदि तस्स सामण्णं। हादि समाहिदमंविसोत्तियं च जिणसासणाणुदं।।143।। - भगवती आराधना 22. शिवार्य, भगवती आराधना, गाथा 134-142
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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